शनिवार, 27 जुलाई 2013

आओ मिड डे मील बनाएँ……

आओ मिड डे मील बनाएँ……

सब्जियों के सब्ज़ बाग़ में चलें …

मिड डे मील की सब्जी खरीदने का सर्वाधिक उपयुक्त समय तब होता है जब अँधेरा अपने पैर पसार चुका हो और सब्जी के ठेले वाला अपनी बची - खुची सब्जियां जानवरों के आगे डाल रहा हो | जानवर सूंघ कर आगे बढ़ जा रहे हों | सब्जियां वृद्ध होकर मुरझा के अपना रंग - रूप छोड़ चुकी हों, उनमें कीड़े पड़ चुके हों | यही सुनहरा मौका है, आप तुरंत अपना थैला उसके आगे खोल दें |  बिना बहस किये वह दो - पांच रूपये में अपना ठेला आपके झोले में डाल देगा |  आप अगर पैसे ना भी दें तब भी वह कुछ नहीं कहेगा | थैले की कराह पर बिलकुल ध्यान न दें |  ध्यान रखें …ये गरीब के बच्चे हैं जिनके घर कई - कई दिनों तक सब्जी नहीं बनती है |

मसालों के मसले यूँ सुलझाएँ …

मसाले खरीदने आप दिन के उजाले में जाएं |  इस कार्य के लिए रात का समय मुफीद नहीं है | रात के समय आप ठगे जा सकते हैं | दुकानदार आपके कपड़ों से आपको इज्ज़तदार आदमी मानते हुए असली मसाले भिड़ा सकता है | जबकि आप शहर के बिलकुल कोने में स्थित इस छोटी सी दूकान में इसीलिए जाते हैं क्यूंकि हल्दी, धनिया, मिर्च में मिलाए जाने वाले पीला रंग, लीद और ईंट के चूरे से भी आगे अगर कोई आविष्कार हो चुका हो तो वह सबसे पहले इसी दूकान में आता है |बच्चों को चूहा मानें और इन मिलावटी मसाले बनाने वालो को होनहार वैज्ञानिक | बच्चों को अगर कुछ नहीं हुआ तो  दुकान वाला ये मसाले बाज़ार में सरलतापूर्वक उतार देगा और आपके गुण गाएगा, साथ ही साथ कमीशन भी देगा |

 तेल के ताल में डुबकी लगाएँ……

बाज़ार में जिस दाम पर बोतलबंद पानी उपलब्ध नहीं हो, उससे भी कम दाम पर खुली बोतल में तेल खरीद कर लाएं और दिखा दें सरकार को कि वह कितनी भी होशियार क्यूँ न हो, उसके पास कितने ही विश्व विख्यात अर्थशास्त्री क्यूँ न हों , आपके अनर्थशास्त्र के आगे उनका अर्थशास्त्र कहीं नहीं ठहरता | भले ही तेल में से बदबू आए, बोतल में ज़हरीले कीटनाशक मिलें हों, आपका दिल बस एक ही बात जानता है कि ये बच्चे  ऐसे घरों से आते हैं जहाँ इंसान को लक्कड़ हो या पत्थर,  सब कुछ हज़म हो जाता है और कीटनाशकों को सूंघ कर, खाकर ही तो आज ये इतने बड़े हुए हैं | बच्चे शिकायत करें तो उनके ऊपर हंसने में देरी न करें, जी खोल कर खिल्ली उडाएं  '' घर में तो पेट भर खाना मिलता नहीं, यहाँ मुफ्त का मिल रहा है तो इतने नखरे दिखा रहे हैं '' या '' पेट भर गए तो दिमाग खराब होने लगे इन लोगों के ''|

भोजन माताओं की भन्नाहट  …

यूँ तो सरकार के नियम बहुत ही सख्त होते हैं |  एक अत्यंत सख्त नियम के अनुसार बच्चों का खाना वही औरत बना सकती है जिसके खुद के बच्चे उस स्कूल में पढ़ते हों | जब इन माताओं को नियुक्ति पर रखें तब सारे नियम स्पष्ट कर  दें | साल गुज़रते जाते हैं और जब इन भोजन माताओं के बच्चे स्कूल से पढ़ कर चले जाते हैं, इनको उसी सख्त नियम के अनुसार नोटिस थमा कर बाहर का दरवाज़ा दिखला दिया जाता है | तब ये स्कूल के आगे धरना - प्रदर्शन करने लग जाती हैं, गाँव वालों को अपने साथ मिला लेती हैं , भूख हड़ताल पर बैठ जाती हैं | इनकी ताकत से डर के आप इन्हें पुनः नियुक्ति दे देते हैं |  आखिर आपको इनके गाँव में नौकरी भी तो करनी है | यहाँ पर संविधान का यह अलिखित नियम काम करता है कि सरकार जिसे अपनी शरण में एक बार लेती है फिर वह ज़िंदगी भर उसका शरणार्थी बना रहना पसंद करता है |
स्कूल के प्रधानाध्यापक और अध्यापक भोजन माताओं से गंभीरता से काम करने की अपेक्षा करते हैं जबकि वे अध्यापकों को देखकर कामचोरी और लापरवाही सीख रही होती हैं | उन्हें पता होता है कि जब सरकार इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती तो हमारा क्या बिगाड़ लेगी |

साहबों से सामना  …

.स्कूलों  में तभी झाँकने जाएं जब कोई बड़ी घटना या दुर्घटना हो जाए |  घटना होने के बाद ताबड़तोड़ दौरे करें | स्कूलों की दशा और पढाई की दिशा पर आँख मूँद लें सिर्फ भोजन और भोजन पकने की जगह पर ध्यान केन्द्रित करें | ऊपर से ऐसा ही आदेश आया है | उपरवाला सदा से ही सर्वशक्तिमान रहा है | वह जानना चाहता है, पहिचानना चाहता है कि तीन रूपये छतीस पैसों में घोटाला करने की हिम्मत किसके अन्दर है ?

प्रश्नों के पिटारे …

साहब वही जो बस प्रश्न पूछे और उत्तर बिना सुने दूसरा और तीसरा प्रश्न पूछ डाले | चावल में कीड़े मिलें तो फटकारें '' चावल में कीड़े क्यूँ हैं ?'' ये बात भूल जाएं कि चावल में कीड़े तो उसके घर में भी पड़े रहते हैं जिन्हें साफ़ करके ही बनाया जाता है | कीड़े नहीं मिलें तो कहें '' चावल में कीड़े क्यूँ नहीं हैं, अच्छे चावलों में कीड़े अवश्य पड़ते हैं,  इसका मतलब ये चावल बेकार हैं…आप लोग इतना बेकार चावल खिलाते हैं बच्चों को '' |  खाना खुले आसमान के नीचे और चूल्हे में पक रहा हो तो पूछें ''रसोई कहाँ है ? गैस कहाँ है'' ?  अगर वे कहें कि सरकार ने रसोई बनवाने के लिए पैसा नहीं दिया, या तीन साल से कनेक्शन के लिए आवेदन दिया है... अभी तक  गैस नहीं मिल सकी है....खाने का बजट छः - छः महीने में आता है … उधार लेकर खाना बनवाना पड़ता है ''  | इस तरह की समस्याप्रधान बातों पर बिलकुल कान न दें | मछली की आँख पर निशाना बनाए रखे | समस्याएँ सुनना अफसर का काम नहीं है …अफसर, अफसर होता, और कभी - कभी नहीं वह अक्सर अफसर होता है |

प्रधानाचार्य का प्रसाद  …

जिस समय मिड डे मील का चार्ज दिया जा रहा हो, इसको फ़ुटबाल बना दें |.हर हालत में चार्ज को दुश्मन अध्यापक के के पाले में फेंक कर ही दम लें | चार्ज देते समय उसे तरह - तरह का लालच दें | मसलन यूँ कहें '' बहुत फायदा है इसमें | अपने घर का राशन - पानी इसी से निकाल लेना और आने जाने का खर्च भी निकल जाएगा, आपको बहुत फायदा होगा और स्कूलों में मारामारी मची हुई है ...मिड डे मील का चार्ज लेने के लिए घूस खिलाई जा रही है और हम आपको मुफ्त में दे रहे हैं...इस प्रसाद को खुशी - खुशी ग्रहण कीजिये ''|  अगर वह ज़रा भी इनकार करे तो उसे सी . आर. खराब करने की धमकी दें | सदियों से सरकारी आदमी, सरकार से नहीं बल्कि सी. आर .से डरता आया है | एकदम काम बन जाएगा |

मास्टरों की मटरगश्ती ....

दुर्घटना के बाद यह फरमान आता है कि अब से मिड डे मील का भोजन बच्चों को खिलाने से  पहले अध्यापक चखेंगे | अगर ऐसा प्रावधान योजना की शुरुआत से ही कर दिया जाता तो कभी ऐसी दुर्घटना नहीं होती | अध्यापकों को कभी भी बच्चों का मिड डे मील चखने से परहेज़ नहीं रहा | बल्कि वे तो सबसे पहले यह काम करना चाहते हैं |  इसमें खतरा इस बात का उत्पन्न हो जाता है कि अक्सर अध्यापक चखने - चखने में ही इतना खा जाते हैं कि बच्चों को खाना सिर्फ चखने को ही मिल पाता है | इसके अतिरिक्त समाज में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अध्यापक को मिड डे मील खाता देखकर कंजूस, मक्खीचूस तो कहते ही हैं साथ ही यह कहने से भी परहेज़ नहीं करते कि  '' इतनी तनखा मिलती है इनको और देखो बच्चों का खाना भी खा जा रहे हैं, हद है बेशर्मी की ''|

सरकार की असरकारी नीति ……

लोग कहते हैं कि अध्यापकों को सरकार ने भांति -भांति की योजनाओं में उलझा रखा है, जिस कारण बच्चों की पढाई प्रभावित होती है | सरकार जानती है कि अगर अध्यापकों से शिक्षा के अतिरिक्त काम न लिए जाएं तब भी उन्होंने पढ़ाना तो है नहीं | ऐसी परिस्थिति में भोजन पकाने के बहाने कम से कम स्कूल तो खुल ही जाता है | किसी - किसी जगह तो वाकई स्कूल भोजन बनाकर बच्चों को खिलाने के बाद बंद हो जाता है | पढ़ाई के लिए तो खुद माँ- बाप ही उन्हें नहीं भेजते | वे चाहते हैं पेट भर भात खाके बच्चा कम से कम शारीरिक श्रम करने लायक हो जाएं |  लड़के फ़ौज या पुलिस में भरती हो जाएँगे कुछ न हुआ तो कम से कम मजदूरी करके ही खा लेंगे और लडकियां जल्दी - जल्दी शादी करके बच्चे पैदा करने लायक हो जाएंगी |

आयरन देखकर रन करते बच्चे .....

आयरन की गोलियां स्कूलों में बांटी जा चुकी हैं | बच्चों ने अध्यापक की नज़र फिरते ही सारी गोलियां खिड़की से बाहर फेंक दी हैं |  बच्चे धीरे - धीरे समझदार होते जा रहे हैं | सरकारी योजनाएं भोले - भाले बच्चों को चतुर - चालाक बनाने में सहायक सिद्ध होती जा रही हैं | ''पर्सनेलिटी डिवेलपमेंट'' का कोर्स मुफ्त में हो रहा है | ऐसी दो - चार योजनाएं और आ जाएँ तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि बच्चों का मानसिक विकास बिना आयरन और हीमोग्लोबिन लिए ही हो जाएगा | 

टी वी पर टसुए बहाने वाले …

टी. वी. पर मिड डे मील की दुर्दशा पर आंसू बहाने वाले इस योजना को बंद करने के लिए ऐढ़ी - चोटी का जोर लगा दें | उन्हें बहुत दुःख पहुँचता है जब कहीं ऐसी दुर्घटना हो जाती है |  उनसे ऐसे दृश्य देखे नहीं जाते  | वे  इस बात को अपने ज़हन में न आने दें  कि भारतवर्ष में आज भी कई बच्चे दिन में सिर्फ एक बार स्कूल में खाना खाकर ही अपना पेट भर पाते हैं | रात को भूखे रहकर अगले दिन स्कूल जाने का इंतज़ार करते हैं और अक्सर इतवार को भूखे पेट ही सो जाते हैं |  इन टी. वी देखने वालों और दर्दनाक तस्वीरें देखकर दुःख प्रकट करने वालों के मन में भयंकर आक्रोश है इसलिए ऐसी योजनाएं तत्काल प्रभाव से बंद हो जानी चाहिए | इन स्कूलों में उनके बच्चे नहीं पढ़ते सो उन्हें इसकी चिंता करने की ज़रुरत नहीं है | सोचने को तो यह भी सोचा जा सकता है कि गरीब लोग गरीबी का दिखावा करते हैं, दरअसल ये उतने गरीब होते नहीं जितने दिखते हैं | जिसके लिए इतनी सारी योजनाएं बन रही हों वह इतना गरीब कैसे हो सकता है कि अपने बच्चों को खाना तक न खिला सके |

केदारनाथ में भगवान् के मंदिर के सामने इतनी बड़ी दुर्घटना हो गयी, हजारों मर गए, कई लापता हो गए | पूजा - पाठ बंद करने की ख़बरें कहीं से भी नहीं आई | मंदिर के पुनरुद्धार के लिए सारे दल पुनः कृत संकल्प हैं |