मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

साल भर का लेखा - जोखा-----------------------------------

कुंभ में मची भगदड़  /  दतिया में कुचले गए निर्दोष  /  किसको देंगे दोष   /  अंध - विश्वास  /  अंध - भक्ति  /  अंध भीड़ के रेले   /  जानलेवा हैं ये ज़िंदगी के मेले । 

हैलिकॉप्टरों की खरीद पर जम कर हुई दलाली  /  जल, थल पर मचा के धूम  /  वायु पर भी छा गए भ्रष्टाचारी ।  

भांजा बेटिकट चढ़ गया  /  मामा जी का टिकट कट गया  /  बकरे की बलि बेकार गयी  /  रेल पटरी से उतर गयी । 

आडवाणी जी हटो - हटो  /  भाजपा में नमो - नमो  /  वेटिंग लिस्ट निकली फ़र्ज़ी  /  आगे जैसी राम जी की मर्ज़ी । 

जेल में पहुंच गया टुंडा   /  अफ़ज़ल को गुप - चुप फांसी पर टंटा   /  बलात्कारियों को फांसी हुई  /  मानवाधिकारियों को खांसी हुई । 

केदारनाथ हो गया तबाह  /  भगवान् की लग गयी आह  /  खोदा पहाड़   /  निकला इंसान  /  पर्यटन या तीर्थाटन  /  अब तो जागो शासन -प्रशासन । 

जग सारा छान लिया  /  उनका लोहा मान लिया  /  हाथ रह गए खाली के खाली  /  मिल न सकी कहीं भी  /  पांच और बारह रूपये की थाली । 

सुशासन की दिख गयी सूरत  /  भगवान् की थे मूरत   /  भोले - भाले  /   मन के सच्चे  /  मिड डे मील से मर गए बच्चे । 

फिक्सिंग का साया  /  बुकियों की देखो माया  /  अंदर हो गए बड़े - बड़े  /  फ़िल्मी सितारे भी धरे गए । 

प्याज ने रुलाया  /  टमाटर ने खून खौलाया  /  सब्जियों ने दूरी बनाई  /  रूपये ने छुई नई ऊंचाई   /  इस वर्ष भी टॉप पर रही महंगाई  ।  

मुजफ्फरनगर में दंगे  /  ज़रा सी बात पर खून - खराबा  /  ठण्ड से मर गए बच्चे  /  मिलती कहाँ से राहत  /  मौतों पर भी हुई सियासत  । 

भेस में साधु के छिपा रहा शैतान  /  हाय ! कलयुगी भगवान  /  भक्त भौंचक्के रह गए  / ठगे - ठगे से रह गए  /  बाप पकड़ में आ गया  /  बेटा छक कर भी छका गया ।  

कैसा समय ये आ गया मौला  /  महिलाओं से डर गए अब्दुल्ला  /  जस्टिस गांगुली और तेजपाल  /  छिपे पड़े हैं अभी नामालूम  /  कितने और गुदड़ी के लाल । 

सचिन ने सन्यास लिया  /  क्रिकेट को निर्विवाद जिया  /  नम हो गयी सबकी आँखें  /  पत्थर दिल तक पिघल गया  /  भारत - रत्न पर विवाद गहराया  /  भूला - बिसरा ध्यानचंद फिर याद आया । 

समोसे में आलू  /  जेल में लालू  /  चारा - लालू  / लालू - चारा  /  अब निभेगा भाईचारा  /  मेरे तो बस ग्वाल - बाल दूसरो न कोय  /  सारे जग में राहुल सा कोई दूजा ना होय  । 

आरुषि को इन्साफ मिला  /  माता - पिता ही निकले कातिल  /  क्या अनपढ़ क्या पढ़ा पढ़ा - लिखा  / सब तरफ ऑनर किलिंग का रूप दिखा । 

रैलियों की आंधी  /  मोदी चाय ने काट ली चांदी  /  फेंकू बनाम शहज़ादा  /  ज़ुबानी जंग ज्यादा से ज़्यादा  /  विकास की किसको पड़ी  /  सामने  है चुनाव की घड़ी । 

एक की मुट्ठी में माँ के आंसू  /  दिल में दादीजी की आस  /  दूसरे की मुट्ठी में सारे जहाँ का भूगोल और इतिहास । 

फाड़ दिया दागियों वाला अध्यादेश  /  अपनी ही पार्टी को दे दिया कड़ा सन्देश  /  कोई कहे ड्रामेबाज़ी   /  कोई कहे धोखेबाज़ी  /   मियां बीबी हों जब राज़ी  /  तब क्या कर लेगा काज़ी । 

कड़े कदम  /  कड़े शब्द  /  कड़ा विरोध  /  कड़ी निंदा  /  कड़ी कार्यवाही   /  कुछ ज्य़ादा हो गई ये कड़ - कड़ मेरे भाई  । 

अमेरिका की दादागिरी  /  देवयानी की किरकिरी  /  कहीं मालकिन सेर रही  /  कहीं नौकरानी सवा सेर रही  /  नौकर की भी शामत आई  /  राघव जी ने हवालात की हवा खाई । 

काला धन और स्विस बैंक का जुमला  /  रामदेव पर मुकदमों से हमला  /  कपाल भांति और प्राणायाम का कारोबार  /  चुभ रहा आँखों में बाबा जी का व्यापार ।  

विदेश से एलिस मुनरो को नोबेल  /  देश से राजेन्द्र यादव गुज़र गए  /  पानी पी -  पी कर कोसने वाले वाले   /  पल भर को सहसा ठिठक गए । 

गाली - गलौच  /  मार - पीट  /  जेल - बेल  /  हाथा - पाई के देखे जौहर  /  बिग बॉस में जीती गौहर  /  महिलाओं का दबदबा कायम रहा  /  हर जगह बॉस हैं वे  /  इसमें न कोई संदेह रहा । 

अनशन में फिर बैठे अन्ना  /  तुरंत पास हुआ लोकपाल  /  भागते भूत का लंगोट मिला  /  चुप रहने से जोक भला   /  अन्ना जी संतुष्ट हुए  /  केजरीवाल रुष्ट दिखे । 

लाल बत्ती रही नहीं  /  ये लाल किसके  /  रूखे - सूखे से दिख रहे  /  ये कंगाल किसके  /  अब कौन भला पूछेगा इनको  /  मंत्री हो या अफसर  /  सूने - सूने से हैं भाल सबके । 

एग्जिट पोल पर लगी रोक  /  नोटा बटन का प्रयोग हुआ  /  कहीं सुयोग कहीं दुर्योग रहा   /  अदभुद यह संयोग रहा । 

लिव इन नहीं फूलों की सेज  /  समलैंगिकों पर फंस गया पेच  /  छेड़ - छाड़ पर कानून बना   /  फाख्ता हुए दबंगों के होश  /   बेनकाब हो गए कई सफेदपोश  । 

यू.पी.  /  उन्नाव  /  डौंडियाखेड़ा  /  सपने सुहाने   /  सबने सच माने  /  महीने भर की खुदाई  /  दावे सारे हवा - हवाई  /  सरकार की जग - हंसाई  । 

लौह पुरुष पर छिड़ गयी जंग  /  सबसे बड़ी प्रतिमा का अब दिखेगा रंग  /  हर घर से लोहा जाएगा  /  पैदल भी दौड़ाया जाएगा  /  पार्टियां पेश कर रहीं अपने दावे  /  गांधी, नेहरू और न सुहावे  /  बस वल्लभभाई मन को भावे । 

ईमानदारी की बात जंच गयी  /  ''आप'' की धूम देश भर में मच गई  /  आम आदमी की बंदगी  /  झाड़ू ने बुहारी गंदगी  /  बत्तीस वाली हुई किनारे  /  अट्ठाइस का तमाशा देखें दिल्ली वाले । 

सारी समस्याएं सुलझ जाएं  /  चमत्कार एक ही दिन में हो जाए  /  कुछ ऐसा करें केजरी  /  उधर खड़े होकर चुटकी बजाएं  /  इधर सतयुग के साथ रामराज्य फ्री में आ जाए । 
 
हार के बाद हुआ मंथन   /  मंथन से निकला हलालहल  /  हलाहल पीकर सब बोले  /  इस शर्मनाक हार के हम हैं वास्तविक अपराधी  /  सब मिलकर बोलो 'देश की माँ  है सोनिया गांधी'' । 

क्लीन चिटों की हरी - भरी बगिया  /   भांति - भांति के फूल बंटे   /  इसको दे, उसको दे  /  जिसको नहीं मिली उसके दिल में शूल उठे । 

सार्थक फिल्मों को मिले नहीं दर्शक  /  निरर्थक फिल्मों ने की खूब कमाई  /  सौ, दो सौ, पांच सौ करोड़  /  मायानगरी में छिड़ गयी होड़  /  जिसका कोई सिर पैर नहीं  /  वह सबके सिरमौर रही । 

कोयला घोटाले की फाइलें हो गईं अंतर्ध्यान   /  मंगल पर जीवन की खोज कर रहा विज्ञान  /  मोबाइल ज़रूरी या शौचालय  /  राई - रत्ती सा मुद्दा बार - बार बना हिमालय  । 

संजय दत्त हवालात में पहुँच गए  /   प्राण, फारुख , मन्ना दा गुज़र गए  /  ऑस्कर तक जाते - जाते  /  फिर से कदम ठहर गए । 

स्टिंग ऑपरेशन ने बटोरे दर्शक  /  मौन रहा बाथेपुर का नरसंहार  /  सूर्यनेल्लि का बलात्कार  /  टी.आर.पी. का श्रेष्ठ उदहारण  /  बहसवीरों  का हर चैनल पर निर्बाध रहा प्रसारण  ।  

फेसबुक का रिज़ल्ट रहा सेंट परसेंट  /  लेखन से ज्यादा महिलाओं की फ़ोटो पर कमेंट  /  टैगिंग ने सिर को दर्द दिया  /  चैटिंग ने दिल को दर्द दिया  ।  

करोड़ों पेजों के नित आमंत्रणों  ने सिर धुनने पर मजबूर किया  /  फ़र्ज़ी आईडीयों ने ब्लॉकिंग को मजबूर किया  ।  




सोमवार, 9 दिसंबर 2013

मैं, मेरी बेटी और हमारी सरकार ..........

मैं, मेरी बेटी और हमारी सरकार ..........


मेरी बड़ी बिटिया 'नव्या' अब दस साल की पूरी हो चुकी है। इस अवसर पर मुझे आशीर्वाद की ज़रुरत है। आशीर्वाद मुझे उसके लिए नहीं बल्कि अपने लिए चाहिए क्यूंकि अब उसके और मेरे बीच सम्बन्धों की डोर बेहद नाज़ुक मोड़ पर पहुँच चुकी है। इस डोर को कहाँ पर कसना है और कहाँ पर ढील देनी है, यह समझ पाने में कई बार मैं स्वयं को नाकाम पा रही हूँ।


अब वह अपने जन्मदिन पर हाई हील की चप्पल खरीदना चाहती है। मैं पिछले कई दिनों से उसे हाई हील और उसे पहिनने से होने वाली परेशानियों के विषय में बता रही हूँ। मैंने गूगल पर कई साइटें उसे दिखाई जो हाई हील पहिनने से होने वाले नुकसानों के विषय में विस्तार से बता रही हैं। लेकिन जैसे आजकल मोदी के भक्त मोदी के विरूद्ध कुछ नहीं सुनना चाहते, वह भी हाई हील के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती। टेलीविज़न पर आने वाली अभिनेत्रियों को जब वह ऊंची-ऊंची हील पहिने हुए  देखती है तो पूछ बैठती है, ''मम्मा, ये कैसे पहिन लेती हैं ऊंची हील? इन्हें तो चोट नहीं लगती, ये तो इतना बढ़िया नाच भी लेती हैं पेंसिल हील पहिनकर, ये क्या किसी दूसरी दुनिया से आई हैं''? मैं उसे उसकी कम उम्र का हवाला देती हूँ। वह जवाब देती है ''जब अभी से पहिनूँगी तभी तो बड़े होने पर परेशानी नहीं होगी ''।


पहले उसने पेंसिल हील खरीदने की ज़िद की थी, जिसे मेरे द्वारा कड़े स्वर से मना कर दिया गया। उसने मेरे कड़े स्वर को बिलकुल उसी गम्भीरता से लिया जिस गम्भीरता से पाकिस्तान हमारे प्रधानमंत्री के कड़े शब्दों को लेता है। लेकिन पेंसिल हील पर मेरा कड़ा रुख कायम रहा। मेरा रवैया देखकर उसने भी अपना सुर बदल लिया। अब वह पेंसिल हील से उतरकर ब्लॉक हील पर आ गयी। मुझे लगा यह ब्लॉक हील भी कहाँ पहिन पाएगी इसीलिये हाँ कर दी। मैंने उससे साफ़ -साफ़ कह दिया कि ब्लॉक हील, कोयला ब्लॉक का आबंटन नहीं  है जो मैं आँख मूँद करके बिना जांच पड़ताल किये उसे थमा दूंगी। आखिर वह मेरी बेटी है। मैं अच्छी तरह से जानती हूँ कि अगर कल के दिन हील पहिनने से उसके पैर में चोट लग गयी या मोच आ गई गयी तो मेरे घरवाले मुझे क्लीन चिट कतई नहीं देंगे।


दुकान में बैठकर मैंने उसे हिदायत दी, चूंकि बाहरी दुनिया के रास्ते बेहद ऊबड़-खाबड़ हैं अतः हील लेने या राजनीति में उतरने से पहले अच्छी से तरह जाँच-परख कर लेनी चाहिए। मुझे शर्तिया यह लगा था कि चलना तो दूर की बात, वह हील पहिन कर सीधी खड़ी भी नहीं हो पाएगी। मैं मन ही मन बहुत खुश हुई। मैं कल्पना कर रही थी कि जैसे ही वह हाई हील पहिनेगी, लड़खड़ा जाएगी या गिर जाएगी। मैंने तो उसके पैर में मोच से भी आगे की बात यानी फ्रैक्चर तक आने की कल्पना कर ली थी, यह सोचकर कि एक बार फ्रैक्चर हो जाएगा तो वह दोबारा हील पहिनने का नाम नहीं लेगी।


मेरी सारी कल्पनाओं को ठेंगा दिखाती हुई मेरी आँखों के सामने उसने हील पहिन ली और दूकान में कई चक्कर लगा डाले, कुछ नहीं हुआ। वह चलती रही, मैं उसे देखती रह गयी या कहें कि उसके गिरने का इंतज़ार करती रह गयी। यहाँ तक कि उसने यह तक कह डाला कि वह इन्हें ही पहिनकर घर जाएगी। मैं यह सोचकर खुश हो गयी कि शायद बाज़ार में चलते समय यह गिर पड़े और मैं उसी पल दुकान में जाकर हील वापिस कर दूंगी। इस तरह एक बार चोट खाने पर हाई हील के प्रति उसका दीवानापन ख़त्म हो जाएगा। लेकिन वह तो आत्मविश्वास से लबालब भरी हुई भीड़ से भरे हुए बाज़ार में चलती रही, मैं उसे देखकर लड़खड़ाती रही। मेरा हाथ पकड़कर उसने मुझे कई बार किनारे खींचा ''ठीक से चलो मम्मा, यह बाज़ार है, गिर जाओगी''। अब तक मेरे बचे-खुचे दिमाग का फ्रैक्चर हो चुका था।


उसकी नज़र में हनी सिंह सुर सम्राट है। उससे बड़ा  गायक न कोई हुआ है न होगा। वह सदी का सर्वश्रेष्ठ गाना ''तू बॉम्ब लगती मैनु'' को ठहराती है। मैं उससे कहती हूँ कि यह गाना कितना वाहियात है या इस गाने में समस्त स्त्री जाति का अपमान  किया गया है। इस गाने को नहीं सुनना चाहिए। इसके अलावा मैं हनी सिंह के विचित्र हेयर स्टाइल की, उसकी अनोखी नाक की, तरह-तरह से मज़ाक बनाती हूँ, हनी सिंह के विरुद्ध किये गए मेरे प्रलाप को वह अनर्गल समझकर पर वह अपने कान बंद कर देती है। जब मैं हनी सिंह के विरूद्ध अदालत में चल रहे केस का हवाला देती हूँ तो  वह कहती है ''पता है मुझे, मेरे दोस्तों ने बताया है कि जो जितना ज्यादा प्रसिद्ध होता है उसके ऊपर उतने ही केस होते हैं, केस होना तो आजकल प्रसिध्दि का पैमाना है''। मैं उसके दोस्त और उनकी अक्लमंदी पर कुर्बान हो जाती हूँ।


मैं उसे अपने ज़माने के सभ्य, शालीन और मधुर गानों के बारे में बताती हूँ कि कितनी मिठास होती थी उस समय के गानों में, तभी तो आज तक याद रहते हैं और आजकल के गाने अभी सुनकर अभी भूल जाने वाले होते हैं। बस शोर ही शोर सुनाई देता है। इस पर वह पिछले महीने के सारे हिट गानों के बोल, जिनका मुझे एक भी शब्द समझ में नहीं आया था, ज्यों के त्यों सुना देती है। फिर वह मुझसे कहती है ''अच्छा, कोई अपने ज़माने का हिट गाना सुनाओ''| मुझे बिना प्रयास के याद आता है ''तू चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त,'' मैंने उसे जानकारी दी'' यह गाना कई महीनों तक सुपर -डुपर हिट रहा था, मैं इस गाने पर हर शादी में नाच किया करती थी। वह पूछ्ती है ''इस गाने में ये जो चीज़ शब्द आया है वह क्या है मम्मी ? मैं फ़ौरन कहती हूँ ''वही चीज़ जिसे पिज़्ज़ा में डाला जाता है, उसे ही मस्त कहा गया है''। वह मेरी और उसी तरह अविश्वास से देखती है जिस तरह जनता राहुल गांधी की ओर देखती है जब वह ऐलान करते हैं कि वे अब कॉंग्रेस में बड़ा बदलाव करेंगे और आम आदमी को जगह देंगे।


इधर कुछ समय से उसकी ज़िदों का आकार-प्रकार देश के घोटालों की तरह दिन बढ़ता जा रहा है। अब वह टच स्क्रीन फोन लेने की ज़िद करने लगी है। मैं उससे कहती हूँ, ''टच स्क्रीन
फ़ोन को चलाना गठबंधन सरकार को चलने से ज्यादा मुश्किल होता है। यह बस शो करने की चीज़ होती  है। किसी का नंबर लगाना चाहोगे तो किसी और का लग जाता है। ज़रा सा टच इधर से उधर हुआ नहीं कि मुसीबत, और अभी उसे इसकी ज़रुरत ही क्या है''? वह अकाट्य तर्क देती है कि उसकी क्लास में सबके पास टच स्क्रीन फोन है सिर्फ वही इकलौती है जिसके माँ-बाप उसे फोन नहीं दे रहे। मैं कहना चाहती हूँ लेकिन कह नहीं पाती कि उसकी क्लास के सारे बच्चे जब फुल मार्क्स लाते हैं और वह उनके आधे भी नहीं लाती तब हम तो उससे कुछ नहीं कहते। स्कूल वाले हर महीने माँ-बाप से यह कहना नहीं भूलते कि अपने बच्चे की तुलना किसी भी बच्चे से कभी मत करिये। इससे बच्चों के अंदर आत्मविश्वास ख़त्म हो जाता है और 
इंफ़ीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स आ जाता है, लेकिन बच्चों की ऐसे तुलनात्मक रवैये से उनके माता-पिता के दिल और आत्मा पर क्या बीतती होगी, इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं है।


मेरे फोन न लेने के अड़ियल रवैये पर वह रूंआसी हो जाती है। उसके आंसुओं की दाल नहीं गलती है तो वह ''चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा'' गाती हुई मेरे भाई को फोन करती है। दोनों मिलकर कुछ ही सेकेंडों में मेरे विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाकर मिनटों में पास भी कर देते हैं। मेरे भाई ने खुद को इस समय बिलकुल रेल मंत्री समझा और अपनी भांजी की इस ज़िद पर उसके लिए टच स्क्रीन एनरोइड फोन खरीद कर दूसरे ही दिन कोरियर कर दिया। मैं मन मसोसते हुए सोचती हूँ, ''कोई  बात नहीं, फोन भले मंगा लिया हो, लेकिन इसे चलाना कोई हंसी खेल थोड़े ही है। जल्दी ही इसे पता चल जाएगा कि यह दिखने में जितना अच्छा लगता है, उतना ही कठिन इसको उपयोग में लाना होता है''। वह तुरंत उसे चार्ज करके मेरे सामने ही अपने मामा का धन्यवाद ज्ञापन करने फोन करने लगती है। उसके बाद मेरे पुराने नोकिया ११०० में उसका भेजा हुआ मैसेज मैं रिसीव करने के लिए बाध्य हो जाती हूँ, जिसमे लिखा होता है ''क्या कहती थी तुम, मुझे टच स्क्रीन चलाना नहीं आएगा, अब देख लिया''। एक ही पल में वह वह ''आप'' पार्टी की तरह कॉन्फिडेंट और इस कॉन्फिडेंस को देखकर और मैं कॉंग्रेस और भाजपा हो जाती हूँ। मैं आँखें पोछने लगती हूँ क्यूंकि मेरी आँखें अब धुंधलाने लग जाती हैं।


स्वयं को बायपास किये जाने की इस घटना से आहत मैं स्वयं को अन्ना हज़ारे महसूस करने लगती हूँ। इस अपमान का बदला मैं दूसरे तरीके से निकालती हूँ। बातों ही बातों में उसे कोसने लगती हूँ कि जब मैं उसकी उम्र की थी तो घर का सारा काम मुझे आता था और मैं खाना भी बना लिया करती थी, कढ़ाई, सिलाई और बुनाई तो और भी छोटी उम्र से आ गया था। और एक वह है कि अभी तक चाय भी बनाना नहीं जानती। मैं सरकार की तरह अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने लगती हूँ। वह इसे चुनौती के रूप में ग्रहण करती है और यह ज़िद पकड़ लेती है कि अब से वही चाय बनाया करेगी। उसने जब पहली चाय बनाई तो मेरा दिल हालिया विधान सभा के चुनावों के नतीज़ों को सुनकर कॉंग्रेस पार्टी के दिल की तरह धक् से रह गया। इन पाँच मिनटों के दौरान मैंने दस बार जाकर गैस को चेक किया। बीस बार आग के बहुत पास न जाने का निर्देश दिया। फिर उसने आटा गूंथने की ज़िद की तो मैंने उसकी प्रगति को यह कहकर रोक दिया  कि '' अभी तेरी ऐसा काम करने की उम्र नहीं है, जब हो जाएगी तो मैं खुद बता दूंगी''। इसके आगे मैं यह जोड़ना नहीं भूली ''अभी तू सिर्फ अपनी पढ़ाई में ध्यान लगा।''


बचपन से लेकर अभी तक उसके कपडे मैं खुद ही खरीद कर लाती रही हूँ। अब पहली बार उसने मेरे खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है और इस शीतकालीन सत्र में वह बहुप्रतीक्षित विधेयक बिना किसी की सहमति लिए पारित कर दिया जिसमे वह अपने हिसाब से अपनी पसंद से अपने कपडे खरीदेगी। मैं इस विधेयक का पुरज़ोर तरीके से विरोध करती हूँ और इस हमारे घरेलू संविधान की इस प्राचीन धारा का हवाला देती हूँ कि ''कपडे हमेशा दूसरों की पसंद से पहिनने चाहिए''  इस धारा से तुरंत किनारा करते हुए वह ऐलान कर देती है ''कपडे मुझे पहिनने हैं या दूसरों को, जब दूसरे मेरी पसंद के कपडे नहीं पहिनते तो मैं क्यूँ उनकी पसंद के कपडे पहनूं''? वह मेरे साथ दूकान में जाती है और  छोटे-छोटे कपड़े छांटती है । मेरा दिल फिर से धक् रह जाता है। मैं उसे छोटे कपड़ों के द्वारा पैदा होने वाली असुविधाओं का हवाला देती हूँ। ठीक से कहीं भी न बैठ पाने का तर्क भी उसे उसके निर्णय से डिगा नहीं पाता। ''इन छोटे और खुले कपड़ों से ठण्ड लग जाएगी, बुखार आ जाएगा, मच्छर काटेंगे, डेंगू, मलेरिया कुछ भी हो सकता है''| मेरे गयी हर दलील को वह खारिज करती चली जाती है। मेरा मन मुझे धिक्कारता है कि कैसी माँ हूँ मैं जो अपने ही बच्चे को बीमारियों के नाम से डरा रही हूँ। इतना प्रयास करने के बाद भी मेरी अंतिम कोशिश नाकाम सिद्ध होती है और उसकी अलमारी में छोटे-छोटे कपडे अतिक्रमण करके अपना स्थान बनाने में सफल हो जाते हैं। मेरा विरोध मेरे शहर की ट्रैफिक व्यवस्था की तरह फिर से धड़ाम हो जाता है।


मैं उसे डॉक्टर, इंजीनियर या अन्य कोई उच्च पद पर जाने के लिए प्रेरणा देने की कोशिश करती हूँ, लेकिन अपनी उम्र की हर लड़की की तरह वह भी फिल्मों में जाना चाहती है या टी.वी. सीरियलों में अभिनय करना चाहती है। मुझे अच्छा तो नहीं लगता लेकिन मुझे इन अभिनेत्रियों और उनकी ज़िंदगी की कठिनाइयों की ऐसी काली तस्वीर बनानी पड़ती है कि अगर कोई अभिनेत्री सुन ले तो पता नहीं क्या हो, मसलन मैं उसे बताती हूँ ''इन हीरोइनों की भी कोई ज़िंदगी होती है, न खाने का समय न सोने का समय। कभी भी शूटिंग पर जाना पड़ जाता है। जैसे तुम अपनी पसंद का जो कुछ भी खाना चाहो, तुरंत खा लेती हो, ये बेचारी नहीं खा सकतीं। तुम गर्मियों के दिनों में तकरीबन रोज़ ही आइसक्रीम खाती हो और याद करो जब भी कोई मिलने आने वाला चॉकलेट लेकर घर पर आता है तो बिना एक मिनट गंवाए तुरंत उस चॉकलेट को अपने मुंह के हवाले कर देती हो और ये बेचारी हीरोइनें, इन्हें तो आइसक्रीम, चॉकलेट खाए हुए सालों बीत जाते हैं। एक चॉकलेट  = चार घंटे एक्सरसाइस इनका फॉर्मूला होता है। इतनी खूबसूरत होकर भी इन्हें सबसे छुप कर रहना पड़ता है। किसी भी धर्म को मानने वाली हों, सभी को बाहर निकलते समय इस्लाम का सहारा [ बुर्का ] लेना पड़ता है। ये सार्वजनिक स्थानों पर नहीं जा सकतीं। कभी अकेले चली भी जाती हैं तो लोग कपडे तक फाड़ देते हैं। मैं उसे कुछ टॉप की हीरोइनों का इंटरव्यू पढ़ने के लिए देती हूँ जिसमे वे बहुत दुःख के साथ अपने ह्रदय की वेदना प्रकट करती हैं ''प्रसिद्ध होने की सबसे बड़ी कीमत यह चुकानी पड़ती है कि वे मन करने पर भी वे सड़क के किनारे खड़े होकर पानी-पूरी नहीं खा सकती हैं ''।  जिन फिल्मों की चमक-दमक देखकर तुम आकर्षित हो रही हो उसकी शूटिंग करना तो और भी गंदा काम है। एक ''नमस्ते'' कहने में ज़रा गड़बड़ हुई नहीं कि दिन भर में पचास बार तक नमस्ते कहना पड़ता है । एक गाने की शूटिंग में महीनों बीत जाते हैं । अगर तुम्हें अपनी किताब का एक पाठ पूरे एक महीने तक पढ़ना पड़े या एक ही किस्म का खाना एक महीने तक खाना पड़े, तो तुम्हें कैसा लगेगा, ज़रा सोचो । ये बेचारी तो अपने मन से कुछ भी शॉपिंग नहीं कर सकतीं । इनका सारा पैसा बैंक में रखे - रखे सड़ जाता है । और फिर ज़रा सी बूढ़ी हुई नहीं कि सब पूछना बंद कर देते हैं ''। वह बड़े आश्चर्य से मेरी बातें सुनती है और अपनी आँखों को बड़ी - बड़ी करके प्रश्न करती है '' मम्मा ! तो फिर ये हीरोइन बनती ही क्यूँ हैं ? मैं तपाक से शीला दीक्षित की तरह जवाब देती हूँ ,'' बेवकूफ हैं वो और उनकी मम्मियां तेरी मम्मी की तरह समझदार नहीं हैं ना इसीलिये इन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाया, लेकिन तू इस मामले में भाग्यशाली है कि तेरी माँ मैं हूँ ''।


जैसे दिल्ली वालों के लिए आजकल झाड़ू एक जादुई वस्तु हो गयी है, उसे दिल के आकार की हर वस्तु में जादुई आकर्षण महसूस होता है। वह बाज़ार में ऐसे कार्ड्स या ऐसे गिफ्ट देखती है जिस पर दिल बना होता है और आर - पार तीर निकला रहता है। ड्राइंग बनाते समय यही उसकी प्रिय आकृति होती है। कैंची से खेल करने में सारे आकार छोड़कर दिल के ही आकार के टुकड़े काटती है। मैं उसे समझाती हूँ कि यह दिल अगर सामने पड़ा हो तो बहुत ही घिनौना लगता है। बिलकुल लाल मांस 
के लोथड़े जैसा। मैं उसे दिल की वास्तविक फोटो दिखाती हूँ और बहुत ही विद्रूप तरीके से उसका वर्णन करती हूँ। उसे जानकारी देती हूँ कि इंसानी शरीर के इस हिस्से को बाज़ार ने सिर पर चढ़ा रखा है वर्ना दिल से ज़यादा उपयोगी दिमाग होता है। लेकिन दिमाग की संरचना उतनी ग्लैमरस नहीं होती इसीलिये दिल का बाज़ार इस कदर गर्म हो गया है। फ़िल्मी गानों, लेखकों और शायरों की बदौलत दिल आज दिमाग से ऊपर की वस्तु बन गया है। असल में दिमाग ही नहीं रहेगा तो दिल किसी काम का नहीं रहेगा। बल्कि दिल से ज़्यादा ख्याल किडनी, लीवर और फेफड़ों का रखना चाहिए। इनमे से एक भी अंग खराब हुआ तो ज़िंदगी बहुत तकलीफदेह हो जाती है। मेरे इस बयान वह मुझे ऐसी घृणास्पद नज़रों से देखती है जैसे कुछ दिनों पहले जनता सी. बी. आई. के डायरेक्टर या आजकल फारुख अब्दुल्ला के स्त्री विषयक बयानों को देख रही है।


जब से उसे थोड़ी से अक्ल आनी शुरू हुई है मैं उसे रूपये, पैसों का मूल्य समझाने की भरसक कोशिश कर रही हूँ। जब-जब वह जेब खर्च मांगती है, मैं उसे बचत करने से होने वाले फायदे गिनाने लगती हूँ। पिछले तीन सालों से उसे हर महीने जेब खर्च देने वादा करती हूँ और हर बार  ''अगले साल से दूंगी'' कहकर महिला आरक्षण बिल की तरह ठन्डे बस्ते में डाल देती हूँ। दस रूपये देकर पंद्रह बार हिसाब पूछती हूँ। पाई-पाई पर पैनी नज़र रखती हूँ। नाराज़ होकर वह मुझे ''चुनाव आयोग '' की उपाधि दे देती है। मैं बुरा नहीं मानती मुझे बुरा मांगने का कोई हक़ भी नहीं है। क्यूंकि वह भी वही कह रही है जो मैं अपनी माँ से कहा करती थी। फैशन और इतिहास अपने को दोहराए तो उसमे हैरानी नहीं करनी चाहिए। जब कोई घर में  आने-जाने वाला रिश्तेदार उसके हाथ में शगुन के रूपये रखता है तो मैं उससे यह झूठ बोलकर कि ''अभी मेरे पास पैसे नहीं है '' सारा पैसा उधार मांग लेती हूँ, उसके द्वारा बार-बार तकाजा किये जाने पर टालने के लिए कह देती हूँ ''तेरे अकाउंट में जमा करवा दिए हैं, जब तू बड़ी हो जाएगे तुझे मिल जाएंगे ''।


आजकल उसके साथ ज़रा भी गड़बड़ हो जाए तो वह मुझे खेमका समझकर मुझ पर चार्ज शीट लगाने में ज़रा भी देरी नहीं करती है, ''सब तुम्हारी वजह से हो रहा है''। स्कूल में डांट पड़े, मैं ज़िम्मेदार, काम अधूरा रह जाए, मेरी वजह से, सुबह तैयार ठीक से न हो पाए, मैं कटघरे में, वैन आने में देरी हो जाए, मेरा कुसूर , कॉपी खो जाए या किताब फट जाए, मैं ही दोषी ठहराई जाती हूँ। अच्छा हुआ कि अभी उसकी राजनैतिक समझ विकसित नहीं है अन्यथा वह भारत- पाकिस्तान के बीच बिगड़े हुए सम्बन्धों का भी कुसूरवार मुझे ही ठहराती। उसके रोज़ाना के इस दोषारोपण के कार्यक्रम से पहले मुझे बहुत दुःख पहुँचता था, लेकिन पिछले कुछ समय से, जबसे मैं खुद को सरकार और उसको आम आदमी समझने लगी हूँ, मेरी तकलीफों 
का ग्राफ़ बहुत नीचे आ गया है। अब मेरी घरेलू स्थिति भी देश की स्थिति की तरह तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में रहती है।


मैं उसके अंदर पढ़ने की आदत विकसित करना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि वह भी मेरी तरह किताबों को अपना मित्र बना ले। इसके लिए मैं हर हफ्ते कोई न कोई कहानी की किताब खरीद लाती हूँ। वह मुझे दिखाने के लिए मेरे सामने चंद पन्नों को पलटती है फिर बंद करके कहीं किताबों के ढेर के नीचे दबा देती है। जब मैं दोबारा उस किताब के बारे में पूछती हूँ तो कह देती है ''अभी मिल नहीं रही है''। मैं उसके इस बहाने को भली-भांति  समझती हूँ, लेकिन जिस प्रकार सारी राजनैतिक पार्टियां दागियों को पार्टी से बाहर निकाल पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हैं उसी प्रकार मैं किताबों के ढेर के सबसे नीचे दबी उस किताब को निकालने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हूँ, ''चलो, कोई बात नहीं, कभी न कभी वह दिन अवश्य आएगा जब किताबें उसे अपनी तरफ खींचने में कामयाब हो जाएँगी'', मैं अपने मन को समझा लेती हूँ। लेकिन हर समय चलने वाले कार्टून चैनल मुझसे बर्दाश्त नहीं होते। मैं टी. वी. पर समाचार लगाकर उससे कहती हूँ, ''समाचार देखा कर। इससे सामान्य ज्ञान बढ़ता है'' जब तक मैं बैठी रहती हूँ, तब तक वह मुझे दिखाने के लिए बड़े ध्यान से समाचारों को देखती है, जैसे ही मैं रसोई में जाती हूँ, वह चैनल बदल देती है और फिर से कार्टून लगा देती है। मेरे डाँटने पर उसका कहना होता है ''क्या मम्मी, हर चैनल पर चार-छह लोग बैठे बकर-बकर कर रहे हैं, इसे समाचार कहते हैं क्या? कोई भी किसी को बात पूरी नहीं करने दे रहा है, इतनी देर में मुझे किसी का एक भी शब्द समझ में नहीं आया। ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारे और पापा की बीच रोज़ होने वाली बहस को टी. वी. में देख रही हूँ। इससे सामान्य ज्ञान कैसे बढ़ेगा मेरा, ज़रा बताओ तो? इससे अच्छा तो डोरेमॉन है, जिसके पास नए-नए गैजेट्स हैं ''। उसने मेरी बोलती उसी तरह बंद कर दी जिस तरह ''आप'' पार्टी वालों ने अपनी शानदार जीत पर अपना मखौल उड़ाने वालों की।


वह फेसबुक में अपना अकाउंट खोलने के लिए कहती है, मैं उसका बैंक में अकाउंट खुलवा देती हूँ। वह कहती है उसके सारे दोस्तों के फेसबुक में अकाउंट हैं और वे सभी आपस में चैट करते हैं। मैं कहती हूँ फेसबुक में १८ साल के होने से पहले कोई अकाउंट नहीं खोल सकता, उसके दोस्तों ने फेसबुक को अपनी उम्र के विषय में गलत जानकारी दी होगी। झूठ बोलना अच्छी बात नहीं है। कभी फेसबुक वाले चेकिंग करेंगे तो ऐसे बच्चों को जेल तक हो सकती है ''। जेल का नाम सुनकर वह डर जाती है और अपनी ज़िद कुछ समय के लिए छोड़ देती है। मैं कुछ समय तक राहत की सांस ले लेती हूँ। जानती हूँ वह पकिस्तान की तरह ज्यादा दिन तक चुप नहीं रहेगी। जिस तरह पकिस्तान को बीच-बीच में कश्मीर का राग आलापे बिना चैन नहीं आता उसी तरह वह भी कुछ दिनों बाद '' फेसबुक '' का आलाप ज़रूर आलापेगी।


कुछ महीनों पहले तक इस बात पर मुझे ज़रा भी यकीन नहीं था कि मैं अपने विषय में कभी इतनी सफाई से झूठ बोल सकती हूँ। मैं उसे बताती हूँ कि जब मैं उसकी उम्र की थी तो अपनी माँ का बहुत कहना मानती थी। वह मुझसे जो कुछ भी करने के लिए कहती थी, मैं तुरंत दौड़-दौड़ कर वह काम किया करती थी। मेरी माँ भी मेरी इस बात का पूर्ण-रूप से समर्थन करती है। ठीक उसी प्रकार से जैसे मेरी नानी मेरी माँ के विषय में मुझसे झूठ बोला करती थी। यह झूठ खानदानी कंगनों की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता आ रहा है। मुझे पक्का विश्वास है कि जब उसकी बेटी इतनी बड़ी हो जाएगी तो वह भी ऐसे ही झूठ बोलेगी और मैं उसकी बात का ऐसे ही आँख मूँद कर समर्थन करूंगी।


यूँ तो उसको मेरी हर बात से आपत्ति है लेकिन सबसे ज्यादा आपत्ति उसे इस बात से है जब मैं एक ही पल में दो अलग-अलग बातें करती हूँ। मसलन जब वह कुछ खरीदने के लिए अकेले दुकान में या पड़ौस में खेलने जाना चाहती है तो मैं उसे यह कहकर रोक देती हूँ कि अभी वह बहुत छोटी है। अकेले आना-जाना उसके लिए सुरक्षित नहीं है, चाहे वह पड़ोस ही क्यूँ न हो। जब वह अपनी ढाई साल की बहिन के साथ होती है और उससे झगड़ती है तब कहती हूँ कि वह इतनी बड़ी हो गयी है और इस तरह से अपनी छोटी बहिन से लड़ती है, उसे शर्म आनी चाहिए। वह समझ नहीं पाती कि मेरी कौन सी बात को सही माने। वह देश की जनता सी कन्फ्यूज्ड हो जाती है कि मीडिया के स्टिंग ऑपरेशन को सच माने या अपनों द्वारा दी गयी क्लीन चिट को


इधर कुछ समय से मैं खुद में और स्टिंग ऑपरेशन करने वालों में फर्क नहीं कर पा रही हूँ। छिप-छिप कर उसके फोन सुनने लगी हूँ। सारी कॉल डीटेल खंगालती हूँ। उसके मेसेज पढ़ती हूँ।कंप्यूटर पर उसने क्या सर्च किया, उसके पीठ पलटते ही चेक करती हूँ, फिर उसे यह बताकर कि उसने क्या सर्च किया था उसे आश्चर्यचकित कर देती हूँ। वह आश्चर्य से पूछती है ''मम्मा, तुम्हें ये सब कैसे पता चल जाता है ''? इस पर मैं बड़े ही रहस्यमय तरीके से मुस्कुराती हूँ और जवाब देती  हूँ ''तू मेरी बेटी है ना, मेरे खून से बनी है। तू कुछ भी करेगी मुझे पता चल जाएगा, हम मम्मियों के लिए भगवान् ने ऐसी ख़ास व्यवस्था कर रखी है''। इस बात को वह बिना तर्क किये स्वीकार कर लेती है और मान लेती है कि मेरे पास कोई ईश्वर प्रदत्त अदभुद शक्ति है। उसकी पीठ पीछे उसके बैग की तलाशी लेती हूँ । कॉपी के हर पन्ने की सूक्ष्मता से जांच-पड़ताल करती हूँ,  खासतौर से पीछे के पन्नों की। मैं जानती हूँ कॉपी के पीछे के पन्नों में कई रहस्य छिपे होते हैं। कहीं आते-जाते समय उसके चेहरे को गौर से देखती हूँ कहीं उसने मेकअप तो नहीं कर रखा है। उसके डर से मैंने लिपस्टिक और काजल लाना और लगाना दोनों बंद कर दिया है। मैं जासूसी के मामले में साहेब को भी मात देने लगी हूँ। उसकी कक्षा में पढ़ने वाले हर लड़के के बारे में घंटों तक पूछताछ करती हूँ। उनकी आदतों के विषय में, उनके घरेलू माहौल के बारे में तफ्सील से जानना चाहती हूँ। वे आपस में क्या बातें करते हैं, यह जानने के लिए लालायित रहती हूँ। मैं हर सम्भावित जगह से खतरे का सुराग तलाशने की कोशिश में लगी रहती हूँ। जब वह कक्षा के किसी लड़के की बात बताती है की तो मेरे कान खड़े हो जाते हैं। ट्यूशन में कौन-कौन लड़के, कहाँ-कहाँ से आते हैं? उनके क्या नाम हैं? कहाँ रहते हैं? किस तरह की मज़ाक करते हैं? कोई छूने की कोशिश तो नहीं करता? कैमरे वाला फोन तो नहीं लाते? आज मैम की जगह उनके भाई ने क्यों पढ़ाया? दरवाज़ा बंद तो नहीं किया आदि आदि । कभी-कभी स्वयं ट्यूशन में जाकर चुपचाप दरवाज़े के पास खड़ी हो जाती हूँ और बातें सुनने की कोशिश करती हूँ। कई बार स्वयं पर शर्म भी आती है लेकिन दिल में इस कदर दहशत भर गयी है कि स्वयं को ऐसा करने से रोक नहीं पाती हूँ।


अपनी इन्हीं बेतुकी और ऊल-जलूल हरकतों की वजह से अपनी दस साल की बच्ची की नज़र में एक नासमझ माँ बन कर रह गयी हूँ। जब वह कहती है, ''तुम्हें आता ही क्या है''? ''तुम्हें पता भी है आजकल बच्चों के फैशन के बारे में'' ,''तुम ओल्ड फैशन की हो'', ''आखिर तुम्हें हो क्या गया है?''। मैं हँसते-हँसते उसकी बात को टाल देती हूँ। मैं कहती हूँ ''यह मेरा भी ज़माना है बच्चे''। वह नहीं मानती। उसकी नज़र में अब मैं पुराने ज़माने की हो गयी हूँ। जब मैं उसे स्त्री सुरक्षा और आजकल के हिंसक हो चुके वातावरण के विषय में बताना चाहती हूँ तो वह मुझे डरपोक समझती है। कहती है ''अगर कोई मेरे साथ बदतमीज़ी करेगा तो मैं उसे एक लात मारकर गिरा दूंगी, मैं तुम्हारी तरह डरपोक नहीं हूँ''। दस दिन सीखे गए कराटे के बल पर वह ''मुझे कराटे आता है'' कहकर वह हा-हू करके, आढ़े-तिरछे हाथ पैर घुमाती है तो मैं हंस पड़ती हूँ। इस पर वह नाराज़ हो जाती है। मैं उसे बताती हूँ कि अपने स्कूल के ज़माने में मैं बहुत बहादुर लड़की मानी जाती थी। मेरे साथ बदतमीज़ी करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन अब समय ऐसा आ गया है कि ज़रा-ज़रा सी बात पर डर लगने लगता है। इस पर वह अपने अचूक अस्त्र फेंकती है, ''काश! मैं लड़का होती, या ''मुझे पैदा ही क्यूँ किया तुमने'', 
''इससे तो मैं पैदा होते ही मर जाती'', ''लड़कियों को भगवान् पैदा ही क्यूँ करता है?'' सरीखे कई भावुक वाक्य, जो मुझे चुप्पी लगाने पर मजबूर कर देते हैं।


इन दिनों मैं उसे कभी बेहद प्यार करती हूँ, कभी यूँ ही उसके बालों में हाथ फिराती हूँ , कभी ज़ोर-ज़ोर से डाँठने लगती हूँ। कभी बात-बात पर टोकती हूँ तो कभी तमीज से बोलने के लिए कहती हूँ। मेरी सारी डांठ-डपट को वह बिलकुल सुप्रीम कोर्ट की डांट समझती है और एक कान से सुनकर दूसरे कान से देती है। मैं उसे अपने-आस पास की अच्छी लड़कियों का उदाहरण देती हूँ ताकि वह भी उनकी तरह एक अच्छी और आज्ञाकारी लड़की बने लेकिन वह है कि बिलकुल मेरी तरह बन रही है। वही तेवर, वैसी ही आदतें, वही स्वभाव का अक्खड़पन और बददिमागी, वही बात-बात पर मुंह लगना और बिलावजह बहस करना। लगता है कि मैं अपने को ही आईने में देख रही हूँ। हर माँ की तरह मैं चाहती हूँ कि उसे सिखाऊं कि लोगों के साथ कैसे तमीज से पेश आना चाहिए, लेकिन यह मेरे समय का दुर्भाग्य है कि मुझे उसे बदतमीज़ लोगों से कैसे पेश आना चाहिए, यह सिखाना पड़ता है।


कहते हैं कि माँ अपनी बेटियों की सबसे बड़ी सहेली होती है लेकिन मैं तो उसके लिए एक कठिन पहेली बनती जा रही हूँ। हम माँ-बेटी के बीच की यह खाई देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई से भी ज्यादा चौड़ी होती जा रही है और इसे भरने का कोई उपाय मुझे दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा है।