शनिवार, 27 जुलाई 2013

आओ मिड डे मील बनाएँ……

आओ मिड डे मील बनाएँ……

सब्जियों के सब्ज़ बाग़ में चलें …

मिड डे मील की सब्जी खरीदने का सर्वाधिक उपयुक्त समय तब होता है जब अँधेरा अपने पैर पसार चुका हो और सब्जी के ठेले वाला अपनी बची - खुची सब्जियां जानवरों के आगे डाल रहा हो | जानवर सूंघ कर आगे बढ़ जा रहे हों | सब्जियां वृद्ध होकर मुरझा के अपना रंग - रूप छोड़ चुकी हों, उनमें कीड़े पड़ चुके हों | यही सुनहरा मौका है, आप तुरंत अपना थैला उसके आगे खोल दें |  बिना बहस किये वह दो - पांच रूपये में अपना ठेला आपके झोले में डाल देगा |  आप अगर पैसे ना भी दें तब भी वह कुछ नहीं कहेगा | थैले की कराह पर बिलकुल ध्यान न दें |  ध्यान रखें …ये गरीब के बच्चे हैं जिनके घर कई - कई दिनों तक सब्जी नहीं बनती है |

मसालों के मसले यूँ सुलझाएँ …

मसाले खरीदने आप दिन के उजाले में जाएं |  इस कार्य के लिए रात का समय मुफीद नहीं है | रात के समय आप ठगे जा सकते हैं | दुकानदार आपके कपड़ों से आपको इज्ज़तदार आदमी मानते हुए असली मसाले भिड़ा सकता है | जबकि आप शहर के बिलकुल कोने में स्थित इस छोटी सी दूकान में इसीलिए जाते हैं क्यूंकि हल्दी, धनिया, मिर्च में मिलाए जाने वाले पीला रंग, लीद और ईंट के चूरे से भी आगे अगर कोई आविष्कार हो चुका हो तो वह सबसे पहले इसी दूकान में आता है |बच्चों को चूहा मानें और इन मिलावटी मसाले बनाने वालो को होनहार वैज्ञानिक | बच्चों को अगर कुछ नहीं हुआ तो  दुकान वाला ये मसाले बाज़ार में सरलतापूर्वक उतार देगा और आपके गुण गाएगा, साथ ही साथ कमीशन भी देगा |

 तेल के ताल में डुबकी लगाएँ……

बाज़ार में जिस दाम पर बोतलबंद पानी उपलब्ध नहीं हो, उससे भी कम दाम पर खुली बोतल में तेल खरीद कर लाएं और दिखा दें सरकार को कि वह कितनी भी होशियार क्यूँ न हो, उसके पास कितने ही विश्व विख्यात अर्थशास्त्री क्यूँ न हों , आपके अनर्थशास्त्र के आगे उनका अर्थशास्त्र कहीं नहीं ठहरता | भले ही तेल में से बदबू आए, बोतल में ज़हरीले कीटनाशक मिलें हों, आपका दिल बस एक ही बात जानता है कि ये बच्चे  ऐसे घरों से आते हैं जहाँ इंसान को लक्कड़ हो या पत्थर,  सब कुछ हज़म हो जाता है और कीटनाशकों को सूंघ कर, खाकर ही तो आज ये इतने बड़े हुए हैं | बच्चे शिकायत करें तो उनके ऊपर हंसने में देरी न करें, जी खोल कर खिल्ली उडाएं  '' घर में तो पेट भर खाना मिलता नहीं, यहाँ मुफ्त का मिल रहा है तो इतने नखरे दिखा रहे हैं '' या '' पेट भर गए तो दिमाग खराब होने लगे इन लोगों के ''|

भोजन माताओं की भन्नाहट  …

यूँ तो सरकार के नियम बहुत ही सख्त होते हैं |  एक अत्यंत सख्त नियम के अनुसार बच्चों का खाना वही औरत बना सकती है जिसके खुद के बच्चे उस स्कूल में पढ़ते हों | जब इन माताओं को नियुक्ति पर रखें तब सारे नियम स्पष्ट कर  दें | साल गुज़रते जाते हैं और जब इन भोजन माताओं के बच्चे स्कूल से पढ़ कर चले जाते हैं, इनको उसी सख्त नियम के अनुसार नोटिस थमा कर बाहर का दरवाज़ा दिखला दिया जाता है | तब ये स्कूल के आगे धरना - प्रदर्शन करने लग जाती हैं, गाँव वालों को अपने साथ मिला लेती हैं , भूख हड़ताल पर बैठ जाती हैं | इनकी ताकत से डर के आप इन्हें पुनः नियुक्ति दे देते हैं |  आखिर आपको इनके गाँव में नौकरी भी तो करनी है | यहाँ पर संविधान का यह अलिखित नियम काम करता है कि सरकार जिसे अपनी शरण में एक बार लेती है फिर वह ज़िंदगी भर उसका शरणार्थी बना रहना पसंद करता है |
स्कूल के प्रधानाध्यापक और अध्यापक भोजन माताओं से गंभीरता से काम करने की अपेक्षा करते हैं जबकि वे अध्यापकों को देखकर कामचोरी और लापरवाही सीख रही होती हैं | उन्हें पता होता है कि जब सरकार इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती तो हमारा क्या बिगाड़ लेगी |

साहबों से सामना  …

.स्कूलों  में तभी झाँकने जाएं जब कोई बड़ी घटना या दुर्घटना हो जाए |  घटना होने के बाद ताबड़तोड़ दौरे करें | स्कूलों की दशा और पढाई की दिशा पर आँख मूँद लें सिर्फ भोजन और भोजन पकने की जगह पर ध्यान केन्द्रित करें | ऊपर से ऐसा ही आदेश आया है | उपरवाला सदा से ही सर्वशक्तिमान रहा है | वह जानना चाहता है, पहिचानना चाहता है कि तीन रूपये छतीस पैसों में घोटाला करने की हिम्मत किसके अन्दर है ?

प्रश्नों के पिटारे …

साहब वही जो बस प्रश्न पूछे और उत्तर बिना सुने दूसरा और तीसरा प्रश्न पूछ डाले | चावल में कीड़े मिलें तो फटकारें '' चावल में कीड़े क्यूँ हैं ?'' ये बात भूल जाएं कि चावल में कीड़े तो उसके घर में भी पड़े रहते हैं जिन्हें साफ़ करके ही बनाया जाता है | कीड़े नहीं मिलें तो कहें '' चावल में कीड़े क्यूँ नहीं हैं, अच्छे चावलों में कीड़े अवश्य पड़ते हैं,  इसका मतलब ये चावल बेकार हैं…आप लोग इतना बेकार चावल खिलाते हैं बच्चों को '' |  खाना खुले आसमान के नीचे और चूल्हे में पक रहा हो तो पूछें ''रसोई कहाँ है ? गैस कहाँ है'' ?  अगर वे कहें कि सरकार ने रसोई बनवाने के लिए पैसा नहीं दिया, या तीन साल से कनेक्शन के लिए आवेदन दिया है... अभी तक  गैस नहीं मिल सकी है....खाने का बजट छः - छः महीने में आता है … उधार लेकर खाना बनवाना पड़ता है ''  | इस तरह की समस्याप्रधान बातों पर बिलकुल कान न दें | मछली की आँख पर निशाना बनाए रखे | समस्याएँ सुनना अफसर का काम नहीं है …अफसर, अफसर होता, और कभी - कभी नहीं वह अक्सर अफसर होता है |

प्रधानाचार्य का प्रसाद  …

जिस समय मिड डे मील का चार्ज दिया जा रहा हो, इसको फ़ुटबाल बना दें |.हर हालत में चार्ज को दुश्मन अध्यापक के के पाले में फेंक कर ही दम लें | चार्ज देते समय उसे तरह - तरह का लालच दें | मसलन यूँ कहें '' बहुत फायदा है इसमें | अपने घर का राशन - पानी इसी से निकाल लेना और आने जाने का खर्च भी निकल जाएगा, आपको बहुत फायदा होगा और स्कूलों में मारामारी मची हुई है ...मिड डे मील का चार्ज लेने के लिए घूस खिलाई जा रही है और हम आपको मुफ्त में दे रहे हैं...इस प्रसाद को खुशी - खुशी ग्रहण कीजिये ''|  अगर वह ज़रा भी इनकार करे तो उसे सी . आर. खराब करने की धमकी दें | सदियों से सरकारी आदमी, सरकार से नहीं बल्कि सी. आर .से डरता आया है | एकदम काम बन जाएगा |

मास्टरों की मटरगश्ती ....

दुर्घटना के बाद यह फरमान आता है कि अब से मिड डे मील का भोजन बच्चों को खिलाने से  पहले अध्यापक चखेंगे | अगर ऐसा प्रावधान योजना की शुरुआत से ही कर दिया जाता तो कभी ऐसी दुर्घटना नहीं होती | अध्यापकों को कभी भी बच्चों का मिड डे मील चखने से परहेज़ नहीं रहा | बल्कि वे तो सबसे पहले यह काम करना चाहते हैं |  इसमें खतरा इस बात का उत्पन्न हो जाता है कि अक्सर अध्यापक चखने - चखने में ही इतना खा जाते हैं कि बच्चों को खाना सिर्फ चखने को ही मिल पाता है | इसके अतिरिक्त समाज में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अध्यापक को मिड डे मील खाता देखकर कंजूस, मक्खीचूस तो कहते ही हैं साथ ही यह कहने से भी परहेज़ नहीं करते कि  '' इतनी तनखा मिलती है इनको और देखो बच्चों का खाना भी खा जा रहे हैं, हद है बेशर्मी की ''|

सरकार की असरकारी नीति ……

लोग कहते हैं कि अध्यापकों को सरकार ने भांति -भांति की योजनाओं में उलझा रखा है, जिस कारण बच्चों की पढाई प्रभावित होती है | सरकार जानती है कि अगर अध्यापकों से शिक्षा के अतिरिक्त काम न लिए जाएं तब भी उन्होंने पढ़ाना तो है नहीं | ऐसी परिस्थिति में भोजन पकाने के बहाने कम से कम स्कूल तो खुल ही जाता है | किसी - किसी जगह तो वाकई स्कूल भोजन बनाकर बच्चों को खिलाने के बाद बंद हो जाता है | पढ़ाई के लिए तो खुद माँ- बाप ही उन्हें नहीं भेजते | वे चाहते हैं पेट भर भात खाके बच्चा कम से कम शारीरिक श्रम करने लायक हो जाएं |  लड़के फ़ौज या पुलिस में भरती हो जाएँगे कुछ न हुआ तो कम से कम मजदूरी करके ही खा लेंगे और लडकियां जल्दी - जल्दी शादी करके बच्चे पैदा करने लायक हो जाएंगी |

आयरन देखकर रन करते बच्चे .....

आयरन की गोलियां स्कूलों में बांटी जा चुकी हैं | बच्चों ने अध्यापक की नज़र फिरते ही सारी गोलियां खिड़की से बाहर फेंक दी हैं |  बच्चे धीरे - धीरे समझदार होते जा रहे हैं | सरकारी योजनाएं भोले - भाले बच्चों को चतुर - चालाक बनाने में सहायक सिद्ध होती जा रही हैं | ''पर्सनेलिटी डिवेलपमेंट'' का कोर्स मुफ्त में हो रहा है | ऐसी दो - चार योजनाएं और आ जाएँ तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि बच्चों का मानसिक विकास बिना आयरन और हीमोग्लोबिन लिए ही हो जाएगा | 

टी वी पर टसुए बहाने वाले …

टी. वी. पर मिड डे मील की दुर्दशा पर आंसू बहाने वाले इस योजना को बंद करने के लिए ऐढ़ी - चोटी का जोर लगा दें | उन्हें बहुत दुःख पहुँचता है जब कहीं ऐसी दुर्घटना हो जाती है |  उनसे ऐसे दृश्य देखे नहीं जाते  | वे  इस बात को अपने ज़हन में न आने दें  कि भारतवर्ष में आज भी कई बच्चे दिन में सिर्फ एक बार स्कूल में खाना खाकर ही अपना पेट भर पाते हैं | रात को भूखे रहकर अगले दिन स्कूल जाने का इंतज़ार करते हैं और अक्सर इतवार को भूखे पेट ही सो जाते हैं |  इन टी. वी देखने वालों और दर्दनाक तस्वीरें देखकर दुःख प्रकट करने वालों के मन में भयंकर आक्रोश है इसलिए ऐसी योजनाएं तत्काल प्रभाव से बंद हो जानी चाहिए | इन स्कूलों में उनके बच्चे नहीं पढ़ते सो उन्हें इसकी चिंता करने की ज़रुरत नहीं है | सोचने को तो यह भी सोचा जा सकता है कि गरीब लोग गरीबी का दिखावा करते हैं, दरअसल ये उतने गरीब होते नहीं जितने दिखते हैं | जिसके लिए इतनी सारी योजनाएं बन रही हों वह इतना गरीब कैसे हो सकता है कि अपने बच्चों को खाना तक न खिला सके |

केदारनाथ में भगवान् के मंदिर के सामने इतनी बड़ी दुर्घटना हो गयी, हजारों मर गए, कई लापता हो गए | पूजा - पाठ बंद करने की ख़बरें कहीं से भी नहीं आई | मंदिर के पुनरुद्धार के लिए सारे दल पुनः कृत संकल्प हैं |

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

जिज्ञासा है मुझे ......

साथियों, ग्रह अच्छे पड़े हैं । लक्षण भी शुभ दिखाई दे रहे हैं । दो हज़ार चौदह में होने वाले लोक सेवा चुनाव के मद्देनज़र बयानबाजियों का शानदार आगाज़ हो गया है । पहले दीमक आया फिर तोता आया, उम्मीद है अंततः इंसान भी आ ही जाएगा । कुत्ता इस मामले में स्वयं को भाग्यशाली पशु माने । कई सारे जानवरों के बीच में उसका चुनाव कोई हंसी खेल नहीं था ।

मरने को तो गाड़ियों के नीचे आके आदमी तक मर जाता है और मरता भी आया है । मारने वाले को कई बार दुःख होता है कई बार नहीं भी होता । मारने वाले को यह कहने की सुविधा है अगर वह अपनी गाडी की स्पीड कम करता तो खुद उसकी जान को ख़तरा हो जाता । अब वह गाडी की स्पीड को मेन्टेन रखे या पिल्ले की जान बचाए । आदमी ठोक बजाकर बढ़िया गाड़ी खरीदता ही इसीलिये है कि उसकी गाडी की गति, ज़माने की गति से बराबरी कर सके, उसे टक्कर दे और मौका मिलते ही उससे आगे बढ़ जाए ।  ।

सवाल ये है की वे कौन से कुत्ते या पिल्ले हैं जो गाड़ियों के नीचे आते हैं ?


१--------- पुचकारने के लिए काम आने वाले कुत्ते ...

ये कुत्ते गाड़ियों में मालिक के बगल में बैठते हैं या मालकिन और उनके बच्चों की गोद में । सड़क पर चलती जनता उनको देख कभी अचंभित रह जाती है तो कभी कर आहें भरने लगती है । इनकी सूरत पर मुग्ध होकर इन्हें आप बड़े - बड़े शहरों से कई हज़ारों में खरीद कर लाते हैं । इनकी बुकिंग एडवांस में होती है । अक्सर इसकी शक्ल बहुत भयानक होती है । ये समाज में आपका रुतबा बढ़ाते हैं । इनकी खासियत यह है कि इनकी रखवाली आपको करनी पड़ती है । ज़रा सी नज़र बची या एक मिनट को भी खुला छोड़ दिया, कोई ना कोई पट्टा पकड़ कर खींच ले जाएगा । इस प्रकार के कुत्तों का दिल बहुत साफ़ होता है । बिना कोई प्रतिवाद किये ये अपने नए मालिक के पीछे - पीछे चल पड़ते हैं । नया मालिक इन्हें दूसरे को बेच देता है दूसरा तीसरे को । इस प्रकार इनकी हालत घर से भागी हुई गरीब लड़कियों की तरह हो जाती है ।

 इन्हें अजनबियों को डराने और हो सके तो काटने के लिए बहुत अरमानों के साथ घर लाया जाता है । यह काटने के बजाय चाटने लगता है । मेहमानों के सामने इनकी पोल खुलने का डर बना रहता है । आप मेहमानों के सामने उसका पट्टा कस कर पकड़ लेते हैं और ऐसा नाटक करते हैं कि जैसे ही आपका हाथ छूटेगा , वह मेहमानों को फाड़ कर कच्चा चबा जाएगा । लोगों के सामने तरह -तरह के झूठे किस्से गढ़ने पड़ते हैं जिसमे उसे शेर सरीखा खतरनाक बताया जाता है । हकीकत में इस तरह के कुत्तों को उनके मालिक रोटी भी महीन - महीन टुकड़े करके आधा घंटा दूध में भिगा कर देते हैं । इनके दांत इतने कमज़ोर हो जाते हैं कि ये बोटी तक ठीक से चबा तक नहीं पाते । आप और आपके परिवार वालों को भले ही न मिले पर इनके लिए आप हर महीने कैल्शियम की गोलियां लाना नहीं भूलते । इनको छोड़कर आप बाहर घूमने नहीं जा सकते हैं । इनको अपने साथ ले जाना आपकी मजबूरी होती है ।

ये सड़क पर नहीं चलते हैं सो गाड़ियों के नीचे नहीं आ सकते । 

२-------------- दुत्कारने के लिए काम आने वाले कुत्ते ....

इस प्रकार के कुत्ते गाड़ियों के नीचे आने के काम आते हैं । ये आपको सिखाते हैं कि इंसान को ज्यादा संवेदनशील नहीं होना चाहिए । संवेदनाएं होना अच्छी बात है लेकिन कुत्ते के सन्दर्भ में नहीं । पहली बार जब आप किसी कुत्ते को कुचलते हैं, आप बहुत परेशान होते हैं । कई बार रो भी पड़ते हैं । कई दिन तक उसकी सड़क पर बिखरी हुई आंतें और खुली हुई आँखें आपका पीछा करती हैं । आप भगवान् के आगे जाकर हाथ जोड़कर अपने गुनाह की माफी भी मांगते हैं । उसके बाद दूसरा कुत्ता जब आपकी गाडी के नीचे आता है, आप थोड़े से दुखी होते हैं । उसके बाद आपकी गाड़ी चल पड़ती है । फिर आप आसानी से कहने की स्थिति में आ जाते हैं '' इसे कहते हैं कुत्ते की मौत ''। एक समय ऐसा भी आता है कि आप कुत्ते को कुचलने के बाद मज़ाक करने लगते हैं ''  इसको सारी दुनिया में सुसाइड करने के लिए मेरी ही गाडी मिली थी क्या ? '' इस प्रकार के कुत्तों की लगातार मौतें हमें संवेगात्मक रूप से स्थिर बनाए रखने में सहायक होती हैं ।


इन पर कोई खर्च मत करो, सुबह का बचा हुआ बासी खाना नफरत के साथ इनके बर्तन में डाल दो, उसे ही खा कर ये प्रसन्न  हो जाते हैं । जितना पेट में जाता है उससे कई गुना भौंकते हैं । आपकी अनुपस्थिति में खाली पेट रहकर भी आपके घर की रखवाली करते  हैं । आप इनसे पीछा नहीं छुड़ा सकते । इनको आप कितनी भी दूर छोड़ के आएँ, वापिस आ जाते हैं । कई मीलों तक का सफ़र तय कर ले जाते हैं लेकिन आपके घर की बासी रोटी ही इन्हें अच्छी लगती है । और तो और दूसरे के घर से रोटी खा के भी ये रखवाली आपके ही घर की करते हैं । ये आपकी लात खाएंगे, डांट भी सहेंगे और प्यार से दुम भी हिलाएंगे ।

यूँ सड़क पर और भी जानवर पाए जाते हैं । गाय, बैल, सांड इत्यादि इत्यादि । इन्हें कुचले जाने का डर नहीं रहता । बिल्ली भी रास्ता पार कर ले जाती है । बल्कि बिल्ली को आप सादर रास्ता देते हैं । कितनी ही गति से गाडी चला रहे हों, बिल्ली को देखते ही धीमी कर देते हैं । वह शान से दाएं -  बाएँ देखते हुए रास्ता पार कर ले जाती है । अंधविश्वास भी कई बार बहुत काम का निकलता है । इससे सिद्ध होता है कि सड़क पर आना ही है तो बिल्ली या सांड की तरह आएं,  कुत्ते की तरह नहीं ।  

यह  कहना गलत है कि हमेशा कुत्ते ही गाड़ियों के नीचे आकर बेमौत मारे जाते हैं , कभी - कभी संवेगात्मक रूप से अस्थिर इंसान कुत्तों को बचाने के चक्कर में खुद कुत्ते की मौत मारे जाते हैं । मुझे बड़ी जिज्ञासा होती है कि उस दिन कुत्ते, इंसानों की लाशों को देखकर क्या मजाक करते होंगे ?



बुधवार, 10 जुलाई 2013

तैयार है उत्तराखंड फिर से ........

तैयार है उत्तराखंड फिर से ........

सुना  है मौसम विभाग ने उत्तराखंड में फिर से भारी बारिश की आशंका व्यक्त की है । इस बार तो वाकई हम इसे गंभीरता से ले रहे हैं वरना आज से पहले ऐसा होता आया था कि जब भी मौसम विभाग मूसलाधार बारिश की संभावना व्यक्त करता था तब हम निश्चिन्त होकर घूमने - फिरने निकल जाते थे कि अब एक बूँद भी बारिश नहीं होगी । जब विभाग द्वारा  खिलती धूप की सम्भावना व्यक्त की जाती थी तब लोग अपने साथ छाता अवश्य लेकर चलते थे, ना जाने कब बरसात हो जाए ।

बहरहाल सरकार ने कहा है कि उत्तराखंड की जनता फिर से आपदा से निपटने के लिए तैयार हो जाए । उत्तराखंड ने तैयारी पूरी कर ली है । 

नेता और मंत्रियों ने अपने चहेतों को सूचित कर दिया है कि जो लोग आपदा भ्रमण कार्यक्रम के दौरान हैलीकॉप्टर की सवारी करने से रह गए वे इस बार मौक़ा हाथ से न जाने दें । फ़ौरन आकर रजिस्ट्रेशन करवा लें ।  फिर पता नहीं ऐसी आपदा कब आए । भाग्य और आपदा सिर्फ एक बार दरवाज़ा ठकठकाती है । 

जनता की बीच जाओ तो आफत ही आफत , ना जाओ तो लानत ही लानत । इस के मद्देनज़र राज्य के मंत्रियों, विधायकों ने विदेशों से अपने - अपने क्लोन मंगवा लिए हैं, जिन्हें आपदा होते ही घटनास्थल की ओर रवाना कर दिया जाएगा । इससे पिछली बार की तरह छीछालेदर नहीं होगी । 

चोर, डाकू, लुटेरों ने भी अपनी अबकी बार कमर कस ली है । पिछली बार मृतकों के पैसे लूटे और निर्जीव शरीरों से जेवर खींचे तो समाचार चैनल वालों ने थोक के भाव बदनाम कर दिया था । इतना भी न सोचा कि चाहते तो ज़िंदा लोगों से ही जेवरात खींच लेते । ' ज़िंदा कौमें मौत का इंतज़ार नहीं करतीं '' । चूँकि देवभूमि में थे शायद इसीलिये कुछ देवत्व अन्दर आ गया होगा, वरना उन्हें कौन रोकने वाला था । सारे भारतवर्ष में इंसान के जीते जी ही लूट - खसोट करने का रिवाज़ है ।  ज़िंदा इंसान के अंग निकाल लिए जाते हैं । ऐसे में मृतकों के शरीर से सोना खींच लिया तो कौन सा अपराध हो गया ?

पंडे  - पुजारियों ने भी पूरी तैयारी कर ली है । कहा जाता है कि भगवान् के हाथ में सबकी डोर होती है वह सर्वशक्तिमान है और किसी को भी नचा सकता है । लेकिन अबकी बार ये धरती के भगवान् ऊपर के भगवान् को नचाएँगे । बड़ा रोचक मुकाबला होगा । शास्त्र और शास्त्रार्थ की भिडंत होगी वह भी टी वी के सामने । एक संत कहेंगे  ''मंदिर अपवित्र हो गया, यहाँ पूजा नहीं हो सकती '' , दूसरे फरमाएंगे, ''पूजा पुरानी जगह पर ही होनी चाहिए, वरना भगवान् क्रुद्ध हो जाएंगे ''।  तीसरे कहेंगे '' ये प्रकोप धारी देवी मंदिर को दूसरी जगह शिफ्ट करने के कारण आया '' । इस तर्क में दम है । घर शिफ्ट करने में आम आदमी को तक क्रोध आ जाता  है, फिर वो तो भगवान् हैं और उनके तो तीसरा नेत्र भी है ।

अखबारों की हैडलाइन को सच मानें तो माननीयों ने महंगे से महंगे होटल में कमरे लिए और खाने में चिली - चिकन मंगवाया । अब आप इसमें भी ऐतराज़ करेंगे । देखिये आप इस चिली - चिकन में छिपी हुई संवेदनाएं समझें । वे शाही लोग हैं , चाहते तो वे शाही चिकन मंगवा सकते थे, तंदूरी मटन खा सकते थे । लेकिन नहीं, उन्होंने मिर्च वाला चिकन मंगवाया । इसी बात से उनके दुःख का अंदाजा लगाया जा सकता है । एक तो इंसान इतना दुखी हो ऊपर से उसे ढंग की जगह रहने और खाने को भी ना मिले, ये तो संवेदनहीनता की हद होती है ।

बयानवीर ने भी नए - नए प्रकार के बयानों की खोज कर ली है । कौंग्रेस कहेगी केदारघाटी में जितना भी निर्माण कार्य हुआ है सब पिछली सरकार के दौरान स्वीकृत हुआ था । अब स्वीकृत योजनाओं को कौन रोक सकता है भला ? जवाब में भाजपा  कहेगी  हमने सिर्फ निर्माण कार्यों की स्वीकृति दी थी, लेकिन निर्माण के लिए भूमि की खरीद - फरोख्त उससे पहले के कॉंग्रेसी शासन काल में ही हो गयी थी । हर पांच साल में सरकारों के बदलने का सबसे बड़ा फायदा यहीं पर नज़र आता है । ठीकरों के एक दूसरे  के सिर पर फोड़ने का क्रम अबाध गति से चलता रहता है । जनता के पास कहाँ समय है कि वह पुराने रिकॉर्ड खंगालती फिरे ।

 चूँकि बद्री - केदार जाए बिना किसी का उद्धार संभव नहीं होता । श्रद्धालुओं ने भी पूरी श्रद्धा से तैयारी कर ली है । वे सेना का हौसला बढ़ाएंगे, वाहवाही करेंगे । फेसबुक पर फोटो चिपकाएंगे । लेकिन अपने बेटों को सेना में भेजने के नाम पर उनकी माएं आसमान सर पर उठा लेंगी, रो - रो के ज़मीन आसमान एक कर देंगी । बेटी को किसी जवान को देने के नाम से ही कलेजा काँप जाया करेगा । '' बाप रे कितनी कठिन नौकरी है इनकी, मेरी बेटी कैसे रहेगी इसके साथ ?'' सुविधा संपन्न लोग जवानी में ही तीर्थयात्रा का पुण्य लूटना चाहेंगे । साधन हीन सेना में भर्ती होकर जवान बनेंगे और अपनी जान हथेली में लेकर इनकी जान बचाएँगे ।

इस समय कुछ लोग निराशा के गर्त में डूबे हुए हैं । ''' हाय, हमारे शासन काल में ये आपदा क्यूँ न आई ?इस के मद्देनज़र इस समय देश को ''खाद्य सुरक्षा बिल '' से कहीं ज्यादा '' आपदा सुरक्षा बिल '' की दरकार है।  संकट के समय दिमागी संतुलन बना रहना चाहिए । आपदा आने से वंचित रह जाने वाली सरकारें इस बिल के तहत अपने अधिकार को प्राप्त कर सकती है ।

आंकड़ों के ऊपर मचे घमासान को देखते हुए एक अलग मंत्रालय का गठन कर लिया गया है । इसका काम ये होगा कि जिस समय लोग अपने परिजनों को ढूँढने की गुहार लगाएंगे ये फ़ौरन उनको आंकड़ों के जाल में उलझा देंगे । आंकड़ों के विषय में बोलने के लिए सब स्वतंत्र होंगे । कौंग्रेस कहेगी ये लापता लोगों के सरकारी आंकड़े हैं । भाजपा कहेगी कौंग्रेस जनता को गुमराह कर रही है । सौ की संख्या प्राप्त हो तो उसे हज़ार कहने के लिए और हज़ार की संख्या मिल रही हो तो उसे सौ कहने में ज़रा भी संकोच नहीं किया जाएगा ।


              

रविवार, 7 जुलाई 2013

आतंक से मिल जुल कर लड़ लेंगे ।

हम इस पार से भभकी देंगे ,
वो उस पार से धमकी देंगे ।
इस पार से हम फिर घुडकी देंगे 
उस पार से वो फिर चुटकी लेंगे ।
हम एक कदम, एक कदम वे,
थोडा सा आगे को बढ़ लेंगे, इस तरह
आतंक से मिल जुल कर लड़ लेंगे । [ मास्टरनी ]