बुधवार, 20 मई 2009

...स्व. सुमित्रानंदन पन्त {जयन्ती २० मई }पर विशेष "जैसा मैंने उन्हें देखा"

साथियों जब उन्होंने इस संसार से विदा ली थी तो मैं गोदी की थी ...इसीलिए उनसे जुड़ी कोई याद मेरे पास नहीं है ...हाँ पापा के पास उनसे सम्बंधित कई संस्मरण हैं ...वे उन्हें "नान का" कहते हैं ..."नान" मतलब कुमाउनी में छोटा और "का" मतलब काका ,अर्थात चाचा ....पापा के पास उनके लिखे कई पत्र सुरक्षित रखे हैं ..उनके कई फोटोग्राफ आने जाने वालों ने एल्बम  में से निकाल लिए ....
हम लोग बचपन से ही उनकी फोटो अपनी  पाठ्य पुस्तकों में देख देख कर खुश होते थे ..और लोगों को बताया करते  थे कि ये हमारे दादाजी हैं ...पापा को ये बिलकुल भी पसंद नहीं था कि हम किसी को भी ये बात बताएं....उन्हें  आज भी इस तरह का प्रदर्शन कतई पसंद नहीं आता है.
बहुत कम लोग यह बात जानते होंगे कि पन्त जी एक बहुत अच्छे ज्योतिष भी थे ...उनका दिया हुआ पुखराज पापा ने कई वर्षों तक धारण किया ...बाद में वह गिर कर खो गया ...
आज यहाँ मैं अपनी माँ 'दीपा पन्त' के अनुभवों को आपके साथ बांटना चाहती हूँ ...जब वह पहली बार उनसे मिली तो कैसा लगा उसे ....माँ के ही शब्दों में .........
 
गौर वर्ण ,ऊँचा ललाट ,बड़ी- बड़ी स्वप्नाविष्ट आँखें ,तीखे नाक-नक्श और कन्धों तक रेशमी घुंघराले बाल ,लम्बा कद ,कुरता पायजामा और बास्केट पहने हुए ,यह था उनका पहला और अंतिम दिव्य दर्शन  ,मानो कविता ने ही साकार रूप धारण कर लिया हो .वह क्षण  मेरे लिए शब्दातीत है जिसे याद कर मैं आज भी रोमांचित हो उठती हूँ.
१३ मई १९७३ की वह अविस्मरणीय दोपहर जब स्व. सुमित्रानंदन पन्त जी ने अल्मोड़ा में अपने पूज्य मामा के निवास स्थान पर हम लोगों को विवाह  का शगुन देने के लिए बुलाया था. हमारे विवाह में वे किसी कारणवश सम्मिलित नहीं हो सके थे, इसीलिए एक वर्ष उपरांत जब वे अल्मोड़ा आए, उस समय मेरा नवजात पुत्र 'रोहित',जिसका नाम उन्होंने ही रखा था, लगभग एक माह का होगा,उसे लेकर हम लोग उनका आर्शीवाद पाने वहां पहुंचे.
छोटे से शिशु को देखकर पन्त जी द्रवित हो उठे और बोले "अरे !ये तो इतना छोटा सा है, इसे लेकर तुम इतनी दूर क्यूँ आईं? पर उनको देखने की उत्कंठा के आगे यह बात कितनी मामूली थी. अगर उस दिन वहां ना जाती तो उनका दुर्लभ आर्शीवाद कैसे पाती ?
छात्रावस्था से ही पन्त जी मेरे प्रिय कवि थे, उनकी कविताओं के मनोरम संसार में मेरा मन रमता था. मेरा सौभाग्य  कि उन्हीं के परिवार में वधू रूप [बड़े भाई हर दत्त पन्त की पुत्र वधू ] में उनसे मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ .
इस छोटी सी मुलाकात में उनसे काफी देर बातें हुई, मेरी शिक्षा दीक्षा ,अभिरुचियाँ व घर परिवार के विषय में उन्होंने रुचिपूर्वक बातें कीं ..यह जानकर कि मैं एम् .ए.हिन्दी से हूँ व गोल्ड मेडिलिस्ट हूँ और कवितायेँ भी करती हूँ ,उन्होंने मेरी कुछ रचनाएं सुनीं और आगे लिखने के लिए प्रेरित किया . उनके साथ बातचीत में बिलकुल भी ऐसा नहीं लगा के मैं इतने बड़े व्यक्ति से बारें कर रही हूँ जो हमारे परिवार के बुजुर्ग ही नहीं ,पूरे एक युग के प्रवर्तक भी हैं ,उसके आगे भी वह मानवीय संवेदनाओं से ओत- प्रोत एक महामानव भी हैं .
एक सरल ह्रदय और एक सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी एक भावुक कवि ही नहीं ...पारिवारिक संबंधों के सफल निर्वाहक भी थे .घर के छोटे से छोटे और बड़े बूढों तक के स्वास्थ्य और सुविधाओं का वे ध्यान रखते थे और स्वयं अविवाहित होने पर भी गृहस्थ जीवन की परेशानियों और कठिनाइयों को समझते थे .
मेरी पूजनीया सास जी प्रायः स्नेहपूर्ण स्वर में पन्त जी की रूचि, अरुचि और व्यवहार कुशलता की सराहना करती न थकती थीं .सब भाइयों में छोटे अपने इस देवर के प्रति उनका असीम स्नेह था .यद्यपि अपने स्वभाव के अनुकूल उन्होंने कभी पन्त जी के सम्मुख अपनी स्नेह भावना का प्रदर्शन नहीं किया .स्वाभाव की यही विशिष्टता उनके सभी निकट सम्बन्धियों में मैंने समान रूप से पाई.
पन्त जी के विषय में जितना भी पढ़ा वह कम है ,यह अपने घर में मुझे अनुभव हुआ .उन्होंने संत का स्वभाव पाया  था .किसी के प्रति ईर्ष्या और क्रोध करना तो उनके चरित्र में ही नहीं था .अपनी प्रशंसा और आलोचना दोनों को वे सामान भाव से ग्रहण करते थे .
पन्त जी छायावाद युग के प्रमुख स्तम्भ थे, जिनकी काव्य की रश्मियाँ युग -युगांतर तक संसार को आलोकित करती रहेंगी .
अंत में मेरी औटोग्राफ पुस्तिका में उनकी लिखी कविता की चार  पंक्तियाँ सदैव  उनके स्नेहपूर्ण व्यवहार और भावी जीवन के लिए शुभकामनाओं की याद दिलाती रहेंगी ...
"हंसमुख प्रसून सिखलाते,
पल भर है जो हँस पाओ .
अपने उर के सौरभ से ,
जग का आँचल भर जाओ. "   ......दीपा पन्त ...sw विशेष "