शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

उससे फर्क ही क्या पड़ता है ?

२६/११ की दुखद याद के संदभ में उस इस्राइली मासूम को देखकर लिखी गई कविता,
जब सारे अखबारों में वही रोता हुआ बच्चा छाया हुआ था, मेरे छोटे से मोहल्ले में रहने वाली महिलाएं भी उस बच्चे को देखकर रो पड़ी थीं, और मैंने उससे कुछ दिन पहले ही उस बच्चे की तस्वीर देखी थी, जिसके खींचने वाले  पत्रकार को शायद पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था, जिसके एक ही हफ्ते बाद उसने आत्महत्या कर ली थी. कविता लिखने के बाद अफ़सोस भी हुआ, क्यूंकि बच्चे तो बच्चे ही होते हैं .....काले और गोरे नहीं ....
 
रो  पड़ा मीडिया
सुबक उठी नवप्रसूताएं 
एक गोरा बच्चा अनाथ हो गया 
ऐसा नहीं होना चाहिए था 
कितना प्यारा था वो 
गोल - मटोल, मोटी से दाँत 
रंग गोरा, गुलाबी गाल 
ऐसा बच्चा रोए तो 
अच्छा नहीं लगता है 
उसका हर आँसू 
मोती सा लगता है 
उसके साथ सारा देश 
रो पड़ता है 
काश! इसके बदले
कुछ काले बच्चे
अनाथ हो जाते
धरती का बोझ
हल्का कर जाते
वो, जिनके काले चेहरों पर
सिर्फ आँखें दीखती हैं
जिनकी हड्डियां
खाल चीरकर चीखती हैं
जिनको देखकर गिद्ध
लार टपकाते हैं
जिनकी आँखों से आप
पीले के कई शेड
समझा पाते हैं
जो माँ बाप के होते हुए भी
अनाथ लगते हैं
सुबह से जिनके पैरों में
रस्सी बाँध दी जाती है
हाथों में रात की रोटी
थमा दी जाती है
जो रंग बिरंगे
चार्ट पर बने
रिकेट्स, बेरी - बेरी
पोलियो और रतौंधी
के लक्षण है
कुपोषण का
उत्तम उदाहरण हैं
हे भगवान् ! तू कितना निर्दयी है
रो पड़ी महिलाएं
निः संतानों  की छाती से 
फूट पड़ा दूध 
हज़ारों हाथ उसे 
गोद लेने को 
बेकरार हो उठे 
उसे इस्राइल जाता देख 
भारत पे शर्मसार हो गए 
अभी के अभी युद्ध करो 
दुश्मन को मटियामेट करो 
जो होगा देखा जाएगा 
हाँ कुछ बच्चे अनाथ हो जाएंगे 
उससे क्या फर्क पड़ता है ?
उससे फर्क ही क्या पड़ता है ? 

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

उस लापता का पता चल गया ...

उस सात वर्षीय बच्ची की माँ जब अपनी बेटी  को पड़ोस की  शादी में ले जाने के लिए तैयार कर रही होगी, तो उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसे वह आख़िरी बार सजा  रही होगी. घटना कोई नयी  नहीं है, शादी के मंडप में खेलती -  कूदती बच्ची अगवा कर के ले गए ,कौन और कहाँ , कुछ पता नहीं चल सका .यह यह शहर , हर गली, हर मोहल्ले में होने वाली एक सामान्य  सी घटना है, आज रामनगर में हुई है, कल कहीं और होगी . फर्क इतना है कि हर बार लडकियां बदल जाती हैं और  उनको  गायब करने वाले हाथ बदल जाते हैं.
 
लड़कियों  को मारने वाले हाथ हर जगह मिल जाएंगे, पहले तो पेट में ही उसका खात्मा कर देने की सोची जाती है , किसी तरह से बच गई तो बाहर इंसानी शक्ल में घूमते भेड़िये तो निश्चित ही उसे नोच खाएंगे,  अपनी फूल सी लडकी का यह अंजाम देखकर  कौन सी माँ  बेटी की ख्वाहिश  करेगी?  प्रसव पूर्व लिंग की जांच करवाना अपराध है, यह तो जगह - जगह लिखा हुआ मिल ही जाता है, प्रसव के पांच - सात वर्ष बाद ही बलात्कार करने वालों के लिए क्या ?
 
 बाद   पांच दिन तक पुलिस सुराग लगाती ही रह गई ,पूछताछ करती रह गई और पाचवे दिन बच्ची की लाश को कुत्ते  मिट्टी के ढेर के अन्दर से खींच कर बाहर  ले आये , बच्ची एक माध्यम वर्गीय परिवार की थी, किसी मंत्री, नेता या कंपनी के सी . ई. ओ की होती ,अव्वल तो उनकी बच्चियों को उठाने की कोई हिम्मत ही नहीं करता,अगर कोई करता भी तो   शायद पुलिस उसे पाताल से भी खींच कर ले आती.
 
ना उस बच्ची ने भड़काऊ कपडे पहने होंगे,  ना किसी को व्यभिचार उकसाया होगा, एक साथ साल की बच्ची निश्चित रूप से सेक्स का मतलब भी नहीं जानती होगी ,ना उसका शरीर ही इसे झेलने के लायक होगा. फिर  क्या मिला होगा उस  बच्ची से बलात्कार करके जिसने
 शायद ''बचाओ'' कहना भी ना सीखा हो . दरिदों ने ना केवल बलात्कार किया वरन  बलात्कार  के बाद हत्या कर दी, और तेज़ाब डालकर चेहरा बिगाड़ दिया,  डर होगा कि शायद बच्ची उन्हें  पहचान जाए और वे पकडे जाएंगे.
 
इस घटना  से यह स्पष्ट है कि उत्तराखंड  के चुनिन्दा लोगों के ह्रदय में  कानून  का ज़रा भी डर  नहीं रहा , और रहेगा भी क्यूँ ? उन्होंने अपने आस - पास ऐसे  सेकड़ों लोगों को घूमते हुए देखा होगा जो बिना किसी सुबूत के, बिना किसी गवाह के  अभाव में छूट जाते है,  जिनके आगे क़ानून ने भी अपने हाथ बाँध रखे हैं,  ऐसे लोगों का पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ पाती है. इनकी
 पहुँच बहुत ऊपर तक हुआ करती है, ये लोग  कभी भी ,कुछ भी कर सकते हैं.
 
 . मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार होता रहेगा ,बच्चियां मारी जाती रहेंगी , क्यूंकि इस देश
  एक आम इंसान  की लडकी होना, मतलब पैदा होने के साथ ही हर कदम पर संघर्ष हर कदम पर बलात्कार और इससे भी जी ना भरे तो मौत के लिए तैयार रहना है . 

सोमवार, 23 नवंबर 2009

इत्ती दूर से आये हैं, कुछ तो ख्याल कीजिए

निर्णायक  बनना कभी भी मेरा प्रिय विषय नहीं रहा . मेरा बचपन से यही मानना  है कि किसी के बारे में अच्छे -  बुरे या प्रथम और द्वितीय का निर्णय देने वाले हम होते ही कौन हैं ? इसी अवधारणा के चलते कक्षा में प्रथम आने वाली छात्रा और उसे प्रथम स्थान देने वाली  अध्यापिका  से मेरे सम्बन्ध कभी भी सामान्य नहीं रहते थे. वे मुझे तिरछी नज़र से देखती थीं और मैं उन्हें भवें  तरेर कर .
 
आज सहसा इतने सालों बाद जब मुझे बच्चों के अन्ताक्षरी प्रतियोगिता का जज बनाया गया तो यूँ लगा कि जैसे भारत से बिना पूछे ही उसे ओलम्पिक की मेजबानी सौंप दी हो .कोलेज के ज़माने में टूर में जाना और बस में अन्ताक्षरी खेलने के मध्य  जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध तो
 समझ में आता है, इससे ज्यादा  अन्ताक्षरी को मैं और किसी परिपेक्ष्य में देख नहीं पाती . वैसे अन्ताक्षरी मेरे लिए हमेशा पूजनीय  रही है क्यूंकि  इसे शुरू करने वाली पंक्तियों में सदियों से जिस  लाइन मान्यताप्राप्त है उसमे मेरे पूज्य पिता का नाम आता है इसे मैं यूँ कहती थी ''  समय बिताने के लिए करना है कुछ काम ,शुरू करो अन्ताक्षरी , लेकर पापा [हरि]  का नाम''.  जवानी के उन  दिनों में टाइम ही टाइम हुआ करता था, जिसे इसी प्रकार  नाच गाकर बिताना पड़ता था. कुछ एक फिल्मों में दिखाई गई अन्ताक्षरियाँ आज भी मानस पटल में  अंकित हैं, क्या पता फिर कभी टूर में जाने का मौका लग जाए, और यह वर्षों से संचित धन काम आ जाये, हांलाकि यह भी तय है कि अगर ऐसा मौका आया भी तो  मन ही मन में गाने गुनगुनाती रह जाउंगी, लेकिन गा नहीं पाउंगी .
 
इधर जिस प्रतियोगिता में मुझे जज बनाया गया था, उसमे मात्र देशभक्ति की कवितायेँ और पाठ्यपुस्तक के दोहों के आलावा कुछ भी गाना वर्जित था, इस नियम से मेरे माथे पर परेशानी की चिंताएं दृष्टिगोचर  हो गईं, मैं सोच में पड़ गई कि क्या बच्चे इस बाधा दौड़ को पार कर पाएंगे , क्या देशभक्ति की कविताएँ, या दोहे जिन्हें मैंने मृत समझ  कर अपने सेलेबस से बाहर कर दिया था, क्या अभी तक बच्चों की किताबों में उससे भी बढ़कर क्या उनकी  ज़ुबानों में ज़िन्दा हैं?
 
आखिरकार अन्ताक्षरी की प्रतियोगिता शुरू हुई, पांच बिन्दुओं के आधार पर नंबर देने थे ...शुद्धता, तत्परता, प्रस्तुतीकरण, समय सीमा और विषय - वस्तु .
 
संकट का असली समय अब आया था, मात्र दो मिनट की समय सीमा में इतने सारे पहलुओं को समेटना ऐसा लगा कि जैसे लडकी देखने जा रहे हों और एक नज़र में ही उसकी खूबसूरती , चरित्र, व्यवहार, गृहकार्य की दक्षता सबकी जांच परख कर लेनी है, और मैं इस एक बात पर अक्सर आश्चर्यचकित रह जाती हूँ कि  मोहल्ले में जब भी कोई नववधू आती है और  उसे देखकर लौटती हुई महिलाओं से पूछ बैठो कि ''बहू कैसी है''?  वे मुझे बतलाती जाती हैं ''बहुत अच्छी  है'' दूसरी समर्थन करती है ''स्वभाव तो मत पूछो ,सिर पर पल्ला रखकर  सबके पैर छू रही है'' तीसरी बताती है ''घर के काम में भी चट -  पट है'' चौथी बताती है ''कुछ मत पूछ, भाग खुल गए उनके, ऐसी बढ़िया बहू चिराग  लेकर ढूँढने से भी नहीं मिलेगी'' काश ऐसी नज़रें भगवान् सभी को प्रदान करे.    साथियों ये संवाद लगभग हर बहू के आने के बाद हर मोहल्ले में समान रूप से सुने जाते हैं,  कहना ना होगा कि साल भर बीतते बीतते संवाद में से सं निकल कर मात्र   वाद - विवाद रह जाता हैं.
 
 महिलाओं के डायलोग कुछ इस प्रकार परिवर्तित हो जाते हैं '' मुझे तो पहले ही दिन ठीक नहीं लग रही थी '' ,दूसरी समर्थन करती है, ''हाँ ! ओवर स्मार्ट बन रही थी, ना शर्म न लिहाज़ '', तीसरी क्यूँ चुप रहती ''ऐसी बहू भगवान् दुश्मनों को भी ना दे ''
 
बच्चों को देखकर  मेरे सामने यह स्पष्ट हो चुका था  कि प्रतिभाएं  हम मास्टर या मास्टरनियों के कक्षा में जाकार जानकारी उलट देने की मोहताज नहीं होतीं, वे कहीं न कहीं से प्रकट हो ही जाती हैं, किसी पिछड़े हुए  बिजली ,पानी विहीन  गाँव से, अनपढ़, निरक्षर वातावरण के बीच से या  आधे -भरे  पेट वाले किसानों की झोपड़ियों से  धुंए की तरह बाहर निकल ही आती हैं.
 
बीच में एक दौर चाय पीने का भी आया. चाय की मात्रा देखकर लगा ही नहीं कि इस देश की आँखें किसी दिल को झिंझोड़ देने वाली क्रूर घटना के स्थान पर  सुबह - सुबह चाय की प्यालियों के साथ खुलती हैं, और क्या कहें , विश्वप्रतिष्ठित नारा ''जागो  इंडिया जागो'' इस चाय देश की ही देन है.
 
इस समय स्कूल के छोटे - छोटे बच्चे बहुत या आ रहे थे,  इस एक ग्लास के माध्यम से उन्हें एक चौथाई को समझाना कितना आसान हो जाता.
खाली चाय पीनी पड़ी तो समझ में आ गया कि जज की कुर्सी काँटों भारी क्यूँ कही जाता है.
क्यूँ  इस पर बैठने से पहले दिल को पक्का कर लेना पड़ता है?
 
प्रतियोगिता  की समाप्ति पर जब सबके नंबरों को जोड़ने की बारी आई तो यह साफ़ हो चुका था कि स्कूलों में बच्चों के  फ़ेल होने का प्रमुख कारण क्या है , और पुरुष अध्यापक  स्कूलों में क्यूँ पसंद नहीं किये जाते...हम दो महिला जजों ने नंबर का खज़ाना, सरकारी खजाने की तरह दोनों हाथों से लुटाया हुआ था, और पुरुष अध्यापकों  ने बचत करने के कोंग्रेसी आदेश को हर जगह आत्मसात किया हुआ था. 
 
परिणाम घोषित होने के बाद की स्थिति तो  हमारी जनसँख्या वृद्धि की तरह  विस्फोटक हो गई थी, कुछ मास्टरनुमा  लोग जो फ़ौज में भर्ती होने गए थे, परन्तु उंचाई कम होने की वजह से रिजेक्ट हो गए,थे  और अंत में मास्टर बन गए, कहा भी तो  गया है , कुछ नहीं तो टीचर तो बन ही जाएंगे'',  इन असफल रणबांकुरों ने  मिलकर पूरा संसद के शून्यकाल के जैसा दृश्य उपस्थित कर दिया था,  ये परिणाम घोषित होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, इन्हें बच्चों की प्रस्तुतीकरण से कोई मतलब नहीं था, प्रतियोगिता के दौरान ये  समोसे खाने चले गए थे , लेकिन परिणामों के घोषित होते ही एकाएक करवाचौथ के चाँद की तरह उपस्थित हो गए. बार - बार अपने बहुत दूर से आने की बात को रटे जा रहे थे, मानो दूर से आने का मतलब प्रथम स्थान पर उनका अधिकार हो जाना है. मन ही मन भविष्य की आशंका से दिल काँप उठा कि खुदा ना खास्ता कभी चाँद के निवासी धरती पर विसिट करने के लिए आएं और कहें कि हम इत्ती दूर से आये हैं, अतः हमें अपनी दो चार नदियाँ दे दो, या आठ - दस पहाड़ और  पर्वत दे दो, तब हम क्या करेंगे ?
   मैंने मन ही मन सोचा असंतुष्टों की इतनी बड़ी फ़ौज तो किसी भी पार्टी में नहीं हो सकती, साथ ही  यहां कुर्सी - मेज ना होने पर शुक्र  भी मनाया, जिस पर  कुछ देर पहले मैं सरकार को कोस रही थी, कभी - कभी असुविधाओं में भी सुविधा छिपी होती है, यह धारणा आज सच साबित हुई.
बहरहाल बड़ी मुश्किल से प्रधानाचार्य और उन असंतुष्टों के मध्य एक उच्च स्तर की वार्ता हुई जिसमे सर्वसम्मति से , सर्व से आशय स्वयंभू प्रधानाचार्य और उनके सबसे बड़े जवान  से है, के  बीच  यह फैसला हुआ  कि प्रतियोगिता दुबारा कराई जायेगी इस बार  पिछले जज   यानि, हम लोग नहीं होने चाहिए ,  और इस बार उनके इतनी दूर से आने का विशेष  ख्याल रखा जाएगा,   तभी वे भी अगले वर्ष इस  प्रतियोगिता में ,जो कि उनके क्षेत्र में होनी प्रस्तावित है ,में वे हमारे इत्ती दूर से आने का ख्याल कर पाएंगे.  

सोमवार, 16 नवंबर 2009

आजकल ज़रा बीमार हूँ

इधर बहुत दिनों बाद बाज़ार जाना हुआ| जब से लौट कर आई हूँ, सांस लेने में बहुत तकलीफ  हो रही है| सीने में भारीपन सा महसूस होता  है, हर समय किसी अनहोनी की आशंका से दिल धड़कता रहता है, माथे पर ठंडक के दिनों में भी पसीना चुहचुहा जाता है| सोच रही हूँ कुछ दिन अस्पताल में भर्ती हो आऊं| मेरी हालत भी कुछ - कुछ  भाजपा सी हो गई है|
न मैं चीन और भारत के बीच तिब्बत और अरुणाचल को लेकर बढ़ते तनाव से चिंतित हूँ,  न ही पकिस्तान और भारत के बीच कौन सी नई समस्या खड़ी होने वाली है इसको लेकर परेशान हूँ| इनको सुलझाने के लिए  लिए मैंने घंटों लाइन में खड़े होकर जिनको वोट दिया है, वे ही काफ़ी हैं| मैं सोने के सत्रह हज़ारी होने की बात से भी कभी पीली नहीं पड़ी| इसके लिए मेरी स्वर्ण-प्रेमी बहिनों ने बाज़ार पर कब्ज़ा कर रखा  है, जो सोने के पांच रूपये सस्ता होते ही नाना प्रकार के गहने बनवाने के लिए  सुनारों के पास दौड़ पड़ती हैं| मुझे भारत के आई पी एल से बाहर हो जाने पर   कतई अफ़सोस नहीं है| हो भी क्यों? इसके लिए जब देश की सवा सौ  करोड़  जनता भी कम पड़ जाती है तो मेरी क्या बिसात?  बॉलीवुड के नए लवर बॉय  को लेकर भी में तनाव में नहीं हूँ| इसके लिए  मेरे घर का सबसे होशियार प्राणी, यानि बुद्धू बक्सा, ही पर्याप्त है|  मैं दुनिया के सन् दो हज़ार बारह में समाप्त हो जाने  की भविष्यवाणियों  को लेकर ज़रा सी भी  दुखी  नहीं  हूँ क्योंकि इसकी चिंता करने के लिए अरबों - खरबों की संपत्ति  वाले लोग मौजूद हैं| मैंने तो  जब से होश संभाला है तभी से कोई न कोई दुनिया के ख़तम होने की भविष्यवाणी  करता ही रहता है, इसलिए इस तरह की आशंकाओं के बीच जीने की आदत सी हो गई है| अब तो हाल ये है कि जब कोई भविष्यवाणी नहीं करता तब दुनिया के ख़त्म होने की टेंशन  हो जाती है| मेरे बीमार होने की बात से कहीं आप  यह तो नहीं समझ रहे हैं कि मैंने कई करोड़ की संपत्ति जमा कर ली है और अब मैं गिरफ्तार होने के भय से अस्पताल जाकर आराम फ़रमाने की सोच रही हूँ? या कहीं आप यह अंदाज़ तो नहीं लगाने लग गए   कि मैं महंगाई के डर से अस्पताल की रोटी तोड़ने की सोच रही हूँ? नहीं ऐसा कतई नहीं है| 
असल बात यह है कि  जब मैं कल  बाज़ार गई थी तो अपनी आदत के अनुसार एकमात्र  सस्ती, यानि चने की दाल  के पास जाकर खड़ी हो गई थी| चने के पास जाने की नौबत अचानक ही नहीं आ गई| जिस तरह भाजपा के नताओं ने मुसीबत के समय अपनी पार्टी का साथ छोड़ दिया, उसी तरह मेरे रसोईघर की दालों ने भी ज़माने का चलन देखकर दल बदल लिया| अभी कल ही की बात लगती है जब मैं अपने रसोई घर में विभिन्न प्रकार की दालों को पारदर्शी  डिब्बों में कैद करके रखा करती थी, ताकि आने जाने वालों की नज़र उन पर पड़ जाए और समाज में मेरा मान - सम्मान बरकरार रहे| पारदर्शी होते हुए भी उन के बाहर उनके नाम की चिपकी लगाकर उनका सम्मान बढ़ाया| कितने सुहाने दिन थे जब भाजपाइयों की तरह सभी सहयोगी यथा तेल , मसाले और अनाज मिलकर के एक स्वस्थ और स्वादिष्ट थाली का निर्माण किया करते थे , जिसे देखकर अच्छे - अच्छे पक्ष में बैठे हुए लोगों के मुँह में पानी आ जाया करता था , देखते ही देखते पासा ऐसे पलटा कि थाली ने पानी भी नहीं माँगा . उन्होंने मेरी इज्ज़त का ज़रा भी ख़याल नहीं किया और फ़ौरन पाला बदल लिया| तब मैंने  लपक कर  चने का दामन जो थामा तो अभी तक मजबूती से उसे थामे रखा है| बाज़ार में  न चाहते हुए भी मैं अपनी औरत होने की आदत से बाज नहीं आयी  और अरहर आदि अन्य दालों के साथ  उसका वार्तालाप सुनने लगी| हमेशा चुप रहने वाली चने की दाल भी आज गरज रही थी और चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, ''बस, अब बहुत हो गया मेरा अपमान| मैं इसे और बर्दाश्त नहीं कर सकती| जिसको देखो वही मुँह उठाये चला आता है और मुझे डिब्बे मैं बंद करके रसोई में रख  देता है| बहिन अरहर को देखो| उसे जो भी ले जाता है सीधे ड्राइंग रूम में सजा देता है| आने जाने वालों पर रौब  मारता है| सारी दुनिया उसकी मुरीद हो चुकी है| व्यंग्यकारों ने उस पर बेहतरीन व्यंग्य लिख दिए हैं| ग़ज़ल भी अब प्रेम-प्यार इत्यादि फ़ालतू की चीज़ों से निकल कर, लहराती हुई अरहर के बहर में आ गई है| कविताओं में उसके गुणगान गाये  जा  रहे हैं| वह कवि सम्मेलनों की शोभा बन गई है|  वह भी पीली, मैं भी पीली और हमारी किस्मत देखो कितनी अलग-अलग है| बिलकुल ऐसा लग रहा है जैसे एक अम्बानी को सत्ता मिल गई हो और दूसरे अम्बानी का पत्ता कट गया हो| एक को गैस मिल गई हो और दूसरे को चूल्हा जलाना  पड़ गया हो| आखिर कहाँ तक मैं ये नाइन्सफ़ी बर्दाश्त करुँ? अब तो मसूर बहिन ने भी सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और अब कौन यह कहने की हिम्मत करेगा', 'छाती पर मूंग दल दिया'| बल्कि अब तो मूंग ने सबकी छातियाँ   दल दी हैं| सारी दाल बहिनें मुहावरों से गायब हो चुकी हैं, एक मैं ही अभी तक ज़िन्दा  हूँ| लोग हैं कि नाकों चने चबाकर भी मुझे खाए जा  रहे हैं| आखिर मेरा भी तो एक स्टैण्डर्ड है| सालों तक मुझे गुड़ के साथ  खाकर गरीबों ने अपना पेट भरा है| कभी  मेरा सत्तू बनाकर खाया तो कभी बेसन बनाकर भांति - भांति के पकवान बनाए| मुझे कबाब तक बनाया गया और आज मुझे ही हड्डी करार दे दिया गया| मुझे ही लड्डू के रूप में बनाकर मुँह को मीठा किया गया, हर तरह से मेरा शोषण किया गया और जब सम्मान देने की बारी आई तो अरहर बहिन को चुन लिया| आज मुझे ही कबाब की हड्डी बना दिया गया| मेरी ही बहिन के हाथों हर कदम पर मेरा अपमान हुआ| एक सा रंग-रूप और भाग्य का खेल देखो| एक करोड़ों  में खेल रही है और एक सबकी कटोरियों में पड़ी है| अब फैसला हो ही जाना चाहिए| आज के बाद मैं बाज़ार से गायब हो जाउंगी| तब मेरी अहमियत दुनिया को समझ में आएगी.'
इस प्रकार चने की दाल मेरी समस्त आशाओं पर तुषारापात करते हुए शान से मटकती हुई  चली गई| अन्य बची-खुची दालें भी गुस्से में  खदबदाने लगीं| गेहूं  के बोरे में से भी चीखने चिल्लाने की आवाजें आने लगीं| तभी से मैं खुद को बीमार महसूस कर रही हूँ और यही कारण है कि अस्पताल जाकर भर्ती होने का विचार मेरे मन में आया|

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

समझदार होते अस्पताल ...

कभी कभी मन करता है कि इन अस्पतालों की समझदारी पर बलिहारी जाऊं , इनकी प्रशंसा में स्तुतियाँ लिखूं , आरती गाऊं. इनकी समझदारी तो देखिये, जैसे ही किसी शातिर ...प्रकार अपनी { सुविधानुसार या हिम्मातानुसार} जोड़ सकते हैं, के ऊपर कोई गंभीर आरोप लगने वाला होता है, , उसे ये बीमार घोषित कर देते हैं, गोया कह रहे हों "बन्धु ! चिंता मत करो, हमारे होते हुए तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता , वहां अदालत में बड़का भाई कानून तुम्हारी रक्षा करने के लिए  है, यहाँ हम तुम्हारी देखभाल करने के लिए चौबीसों  घंटे तैनात  हैं''.
 
भविष्य में इन माननीयों को किसी किस्म की  कोई दिक्कत न हो इसके लिए सरकार को कुछ सुझाव .....
 
एम्स और अपोलो की तर्ज़ पर देश में एक ऐसा अत्याधुनिक सुविधाओं से लेस अस्पताल का निर्माण  करवाया जाए ,जहाँ सिर्फ मुक़दमे की संभावना वाले गणमान्य ? लोग ही प्रवेश पा सकें , जैसे ही हवा में इनके बारे में तरह - तरह की अफवाहें तैरने लगें, वैसे ही इन्हें आदर सहित एम्बुलेंस पर डालकर अस्पताल में भर्ती कर लिया  जाए.
 
 
 बीमारी को डाईग्नोस करने के लिए डॉक्टरों को बीमारी की एक लिस्ट थमा दी जाए , जिसकी ज़ुबान  पब्लिक में शहद - शहद और और काम नीम - नीम हो उसे डाईबिटीज़ का रोगी घोषित कर दिया जाए, जिसका नाम भर सुन लेने से पब्लिक की ऊपर की सांस ऊपर,  नीचे की सांस नीचे रह जाए, उस मान्यवर को सांस लेने में तकलीफ का प्रमाणपत्र,  जिसने आम जनता की खून - पसीने की कमी को हाई - हाई जगहों में जाकर उडाने में तनिक भी हिचकिचाहट ना दिखाई हो उसे हाई ब्लड - प्रेशर का मरीज़ का सम्मान पत्र दे दिया जाए . मानव अंगों का कारोबार करने वालों को बेहिचक  किडनी की बीमारी दिखाई जा सकती है
 
बलात्कार के आरोपियों  के लिए बिस्तर का विशेष ख्याल किया जाए, उनके आस पास  लेडी डॉक्टर्स और नर्सों की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए .
 
पकिस्तान से अपनी जान को जोखिम में डालकर आए हुए अपराधियों ? की खातिरदारी में कोई कोर - कसर ना छोडी जाए, इन भाइयों के लिए  विशेष डाइट चार्ट का निर्माण किया जाए , उन्हें चिकन, मटन, कबाब की निर्बाध आपूर्ति होती रहे. जितना ज्यादा जोखिम उतनी तगडी खुराक, इस सिद्धांत का पूर्णतः पालन हो, उनके लिए अस्पताल में  एक विशेष मोबाइल टावर भी बनवाना चाहिए जिससे सीमा पार की खबरें उन तक बिना व्यवधान के  बराबर पहुँचती रहें.
 
हिन्दुस्तानी भाइयों  के लिए बाबा रामदेव से मेनू सेट करवाकर सुबह से शाम तक लौकी के व्यंजन बनवाए जाएं .
 
घूस खाने के शौकीनों के लिए भविष्य में कब, कैसे और कितनी मात्रा में घूस खानी चाहिए इस विषय से सम्बंधित सेमिनारों की व्यवस्था अस्पताल के परिसर के अन्दर ही करवाई जाए , इसमें देश - विदेश के नामी - गिरामी घूसखोरों , जो आज तक किसी की पकड़ में नहीं आ पाए, ऐसे शूरवीरों को ससम्मान बुलवाया  जाए, , उनसे परामर्श लिया जाए, अकेले घूस खाने वाले मनोरोगियों के लिए समुचित काउंसिलिग की व्यवस्था हो, ताकि भविष्य में अकेले खाने की वजह से उनका और उन्हें अकेले खाता देखकर और किसी
 का हाजमा खराब न होने पाए.   
 
अस्पताल में समय बिताने की वजह से इनके दिमाग में कोई  मानसिक आघात ना पहुंचे और इनका सुनहरा भविष्य बर्बाद ना होने पाए, इसके लिए मनोवैज्ञानिकों को नियुक्त किया जाए, प्रवचन बेचने वाले बाबाओं के द्वारा आध्यात्मिक काउंसिलिंग की व्यवस्था करवाना भी इस दिशा में कारगर सिद्ध हो सकता है .